गुप्त वंश (Gupta Dynasty)

गुप्त वंश गुप्त राजवंश

‘गुप्त वंश (Gupta Dynasty)’ शीर्षक के इस लेख में गुप्त वंश से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी को साझा किया गया है।

गुप्त वंश (Gupta Dynasty) का संस्थापक –

श्रीगुप्त को गुप्त वंश का संस्थापक व प्रथम शासक माना जाता है। चीनी यात्री इत्सिंग ने भी श्रीगुप्त का वर्णन किया है। परंतु गुप्त वंश के ही सभी अभिलेखीय साक्ष्य इसके पक्षधर नहीं हैं। प्रभावती गुप्त का पूना ताम्रपत्र लेख और स्कंदगुप्त का सूपिया लेख घटोत्कच को गुप्तवंश का पहला शासक बताते हैं। इन्होंने महाराज की उपाधि धारण की थी, जो कि सामंतो की होती थी। इससे अनुमान लगाया गया कि वे स्वतंत्र शासक नहीं थे। संभवतः ये दोनों ही कुषाणों के सामंत रहे होंगे।

चंद्रगुप्त प्रथम (319-50 ई .)

चंद्रगुप्त प्रथम को गुप्त वंश का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। इसने ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की। इसने अपने राज्याभिषेक की तिथि 319 ई. से एक नई संवत् ‘गुप्त संवत्‘ की शुरुवात की। गुप्त संवत् का पहला प्रयोग ‘मथुरा अभिलेख’ में हुआ है। इसने पाटलिपुत्र को गुप्तों की राजधानी बनाया। इसे ही द्वितीय मगध साम्राज्य का निर्माता माना जाता है। इसने लिच्छवि कन्या कुमारदेवी से विवाह किया। इसी से इसका पुत्र समुद्रगुप्त उत्पन्न हुआ। समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी बनाकर इसने संन्यास ग्रहण कर लिया।

प्रमुख कार्य –
  • महाराजाधिराज की उपाधि धारण की।
  • चंद्रगुप्त प्रथम ने ही पाटलिपुत्र को गुप्तों की राजधानी बनाया।
  • गुप्त संवत् की शुरुवात की।

समुद्रगुप्त (350-75 ई.)

विंसेट स्मिथ ने समुद्रगुप्त को ‘भारत का नेपोलियन‘ कहा। इसे ‘लिच्छवि दौहित्र’ भी कहा जाता है। ये एक महान विजेता था। इसने आर्यावर्त तथा दक्षिणावर्त के 12-12 शासकों को पराजित किया। इसके बारे में विख्यात है कि इसके शरीर पर घाव के 100 निशान थे। यह 100 युद्धों का विजेता था। समुद्रगुप्त कभी युद्ध में पराजित नहीं हुआ। इसके दरबारी कवि हरिषेण द्वारा रचित प्रयाग प्रशस्ति से समुद्रगुप्त की विजयों की जानकारी प्राप्त होती है। इसने गरुण प्रकार, धनुर्धारी प्रकार, अश्वमेघ प्रकार, वीणावादन प्रकार की मुद्राएं चलवाईं। समुद्रगुप्त का एरण अभिलेख मध्यप्रदेश में स्थित है।

प्रयाग प्रशस्ति –

समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति का रचनाकार उसका दरबारी कवि हरिषेण था। यह प्रशस्ति अशोक स्तंभ पर उत्कीर्ण है। मूल रूप से यह अभिलेख कौशाम्बी में अवस्थित था। परंतु अकबर काल में जहाँगीर ने इसे इलाहाबाद के किले में स्थापित कराया। इस प्रशस्ति में जहाँगीर और बीरबल का भी लेख है। इसकी रचना संस्कृत भाषा में चम्पू शैली (गद्य व पद्य का मिश्रण) में की गई है। इसकी लिपि ब्राह्मी है। इसमें न तो किसी तिथि को अंकित किया गया है न ही समुद्रगुप्त के अश्वमेघ यज्ञ का वर्णन है। ह्वेनसांग ने अपनी प्रयाग यात्रा के वर्णन में तो इस प्रशस्ति का जिक्र ही नहीं किया। प्रशस्ति का अर्थ होता है ‘प्रशंसा में की गई रचना’।

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चंद्रगुप्त द्वितीय/विक्रमादित्य (375-415 ई.)

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फाह्यान –

यह चीनी यात्री चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के शासनकाल में भारत आया था। यह चीन, मध्य एशिया, पेशावर के स्थल मार्ग से होता हुआ 399 ई. में भारत आया। इसने अपने चीनी ग्रंथों में भारत को ‘यिन-तू‘ कहा। इसने यहाँ पवित्र बौद्ध स्थलों की यात्रा की। पाटलिपुत्र में अशोक के महल को देखा। नालंदा, राजगृह, बोधगया, वैशाली, कपिलवस्तु, संकिसा व श्रावस्ती का भ्रमण किया। कपिलवस्तु नगर इस समय तक उजड़ चुका था। अंत में 414 ई. में ताम्रलिप्ति बंदरगाह से श्रीलंका तथा पूर्वी द्वीपों से होते हुए समुद्री मार्ग से स्वदेश लौट गया। फाह्यान ने अपने पूरे यात्रा विवरण में कहीं भी सम्राट के नाम का उल्लेख नहीं किया।

भारत के संबंध में फाह्यान के विवरण –
  • मध्यदेश को ब्राह्मणों का देश कहा।
  • यहाँ के लोग सुखी व सम्पन्न थे।
  • मृत्यु दंड का प्रचलन नहीं था। केवल आर्थिक दंड का प्रचलन था।
  • यहां के लोग मांस, मदिरा, लहसुन, प्याज का सेवन नहीं करते थे। चांडालों के सिवाय।
  • मध्य देश के लोग प्राणियों की हत्या नहीं करते थे।
  • मध्य देश के लोग क्रय विक्रय के लिए कौड़ियों का प्रयोग करते थे।

कुमारगुप्त प्रथम/महेंद्रादित्य (415-55 ई.)

यह चंद्रगुप्त और ध्रुवदेवी का ज्येष्ठ पुत्र था। गोविंद गुप्त (बसाढ़ का राज्यपाल) इसका छोटा भाई था। कुमारगुप्त ने विरासत में मिले शासन के समस्त क्षेत्र को स्थिर रखा। कुमारगुप्त के शासन की जानकारी वत्सभट्टि के मंदसौर अभिलेख से मिलती है। इसने कुल 40 वर्षों तक शासन किया। नालंदा विश्वविद्यालय (ऑक्सफार्ड ऑफ महायान) की स्थापना इसी ने की। ह्वेनसांग ने इसका उल्लेख शक्रादित्य के नाम से किया है। इस गुप्त शासक ने सर्वाधिक प्रकार के सिक्के(14 प्रकार) व अभिलेख (18 प्रकार) जारी किए।

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नालंदा विश्वविद्यालय –

ह्वेनसांग ने इसका संस्थापक शक्रादित्य (कुमारगुप्त) को बताया है। नालंदा विश्वविद्यालय आवासीय सह शिक्षण संस्थान का सबसे पुराना उदाहरण है। इसे राजग्रह के बड़गाँव में स्थापित किया गया था। नरसिंह बालादित्य ने नालंदा में 80 फीट ऊँची महात्मा बुद्ध की प्रतिमा को स्थापित कराया। हर्ष ने नालंदा की चाहरदीवारी करवाई। हर्ष ने ही 100 गाँवों और धर्मपाल ने 200 गाँवों की आय नालंदा को दान की। धर्मपाल ने नालंदा का पुनरुद्धार भी कराया। देवपाल के समकालीन बालपुत्र देव (सुमात्रा के शासक) ने नालंदा में एक मठ का निर्माण कराया। देवपाल ने वीरदेव को नालंदा का कुलपति नियुक्त किया। नालंदा में चिकित्सा शास्त्र का अध्ययन सभी के लिए अनिवार्य था। अंत में बख्तियार खिलजी ने इस विश्वविद्यालय को धवस्त कर दिया।

ह्वेनसांग –

यह नालंदा विश्वविद्यालय में 18 माह तक रहा और योगशास्त्र का अध्ययन किया। इसने यहाँ पर अध्ययन के साथ अध्यापन कार्य भी किया। इसके समय नालंदा के कुलपित शीलभद्र थे।

इत्सिंग –

चीनी यात्री इत्सिंग 670 ई. में नालंदा आया। यहाँ रहकर इसने 400 संस्कृत ग्रंथों की प्रतिलिपियां तैयार कीं। इस समय नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति राहुलमित्र थे।

कुमारगुप्त के अभिलेख –

बिलसद अभिलेख कुमारगुप्त का पहला अभिलेख है। यह उत्तर प्रदेश के एटा जिले में अवस्थित है। इसमें कुमारगुप्त तक की गुप्त वंशावली का जिक्र है। दामोदरपुर ताम्रलेख से कुमारगुप्त की शासन व्यवस्था की जानकारी प्राप्त होती है। इसमें अनेक पदाधिकारियों का जिक्र किया गया है।

मंदसौर अभिलेख –

यह कुमारगुप्त की प्रशस्ति है। इसकी रचना कुमारपाल के दरबारी कवि वत्सभट्टि ने की है।

इसमें मालवा के राज्यपाल बंधुवर्मा का जिक्र किया गया है।

इसी में सुमेरु पर्वत और कैलाश पर्वत का भी जिक्र किया गया है।

सिक्के व मुद्राएं –

गुप्त शासकों में सर्वाधिक प्रकार के सिक्के कुमारगुप्त ने ही चलाए। इसने कुल 14 प्रकार के सिक्के चलाए। इसके सिक्कों पर ‘व्याघ्रबल पराक्रम’ उपाधि मिलती है। इसने मयूर प्रकार की मुद्रा चलाई। जो कि समस्त गुप्त मुद्राओं में सर्वाधिक सुंदर थीं। इसके सिक्कों पर देवताओं के सेनापति कार्तिकेय का अंकन मिलता है। इसने समुद्रगुप्त की भांति वीणावादन प्रकार के भी सिक्के चलाए। महाराष्ट्र राज्य के सतारा में कुमारगुप्त की 1395 मुद्राएं प्राप्त हुई हैं। इसके अतिरिक्त बयाना निधि में कुमारगुप्त की 623 मुद्राएं प्राप्त हुई हैं।

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स्कंदगुप्त (455-67 ई.)

यह गुप्त वंश का अंतिम महान शासक था। भितरी अभिलेख से ज्ञात होता है कि इसने भी विक्रमादित्य की उपाधि धारण की। इसने ‘परमभागवत’ की भी उपाधि धारण की। भारत पर प्रथम हूण आक्रमण शुखनवाज के नेतृत्व में स्कंदगुप्त के ही शासनकाल में हुआ। स्कंदगुप्त ने हूणों (मलेच्छों) के आक्रमण को विफल कर दिया। हूणों से देश की रक्षा करने के बाद ‘देशरक्षक’ की उपाधि धारण की। इसके शासनकाल में भारी वर्षा के कारण सुदर्शन झील का बाँध टूट गया। फिर स्कंदगुप्त ने चक्रपालि के नेतृत्व में इसका पुनरुद्धार कराया।

हूण आक्रमण –

स्कंदगुप्त के शासनकाल की प्रमुख घटना हूण आक्रमण थी।

इसकी जानकारी भीतरी स्तंभलेख से प्राप्त होती है।

भारत पर हूणों का पहला आक्रमण स्कंदगुप्त के ही शासनकाल में हुआ।

इस समय हूणों का नेता खुशनवाज था।

स्कंदगुप्त ने हूणों को परास्त किया।

स्कंदगुप्त के अभिलेख –

जूनागढ़ अभिलेख स्कंदगुप्त का सबसे प्रमुख अभिलेख है। स्कंदगुप्त द्वारा हूणों को पराजित करने की जानकारी इसी अभिलेख से प्राप्त होती है। हूणों को पराजित कर स्कंदगुप्त ने पर्णदत्त को सुराष्ट्र प्रांत में अपना गोफ्ता नियुक्त किया। इसी से चक्रपालि द्वारा सुदर्शन झील के बाँध के जीर्णोद्धार की जानकारी प्राप्त होती है। भीतरी स्तंभलेख से पुष्यमित्र व हूणों से स्कंदगुप्त के युद्ध की जानकारी प्राप्त होती है। समुद्रगुप्त, चंद्रगुप्त द्वितीय, व कुमारगुप्त की माताओं का नामोल्लेख भी इसी में है। सूपिया अभिलेख में घटोत्कच से गुप्तों की वंशाली मिलती है। इसमें गुप्त वंश को घटोत्कच वंश कहा गया है। गढ़वा अभिलेख स्कंदगुप्त के शासनकाल का अंतिम अभिलेख है।

सिक्के व मुद्राएं –

स्कंदगुप्त ने रजत के दो नए सिक्के (नंदी/वृषभ प्रकार, व वेदिका प्रकार) चलाए।

इसने ताँबे का कोई सिक्का जारी नहीं किया।

  • स्कंदगुप्त के बाद गुप्त साम्राज्य का पतन होना प्रारंभ हो गया। परवर्ती गुप्त शासक इतने शक्तिशाली नहीं रह गए।
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