भारत की मिट्टियां (Soils Of India)

भारत की मिट्टियां

भारत एक कृषि प्रधान देश है। कृषि का आधार तत्व मिट्टी या मृदा है। ‘भारत की मिट्टियां’ लेख में भारत में पायी जाने वाली प्रमुख मिट्टियों की जानकारी दी गई है। जलोढ़ मिट्टी, काली मिट्टी, लाल मिट्टी, लैटेराइट भारत की प्रमुख मिट्टियां हैं। भारत में मुख्यतः तीन प्रकार की मृदा के विस्तार क्षेत्र पाये जाते हैं –

जलोढ़ मिट्टी 

जलोढ़ मिट्टी का विस्तार क्षेत्र भारत में सर्वाधिक है। भारतीय मृदाओं में इसका क्षेत्रफल लगभग 40 प्रतिशत है। गिरिपद क्षेत्रों, तटीय क्षेत्रों व डेल्टाई भागों में यह मिट्टी बहुतायत मात्रा में पायी जाती है। इस मिट्टी में चूना, पोटाश, कार्बनिक तत्व, व फास्फोरिक अम्ल बहुतायत में पाए जाते हैं। परंतु इनमें नाइट्रोजन व ह्यूमस की कमी पायी जाती है। इस मिट्टी को दो प्रमुख भागों बांगर व खादर में विभाजित किया गया है। पुरानी जलोढ़ मिट्टी को बांगर कहा जाता है। इसमें कैल्शियम कार्बोनेट पाया जाता है। इसका रंग काला या भूरा होता है। ये खादर मिट्टी से लगभग 30 मीटर की ऊँचाई पर पायी जाती है। हर साल बाढ़ द्वारा ढो कर लाई गई जलोढ़ मिट्टी को खादर के नाम से जाना जाता है। बांगर की अपेक्षा खादर मिट्टी अधिक उपजाऊ होती है।

काली मिट्टी 

इसे रेगुर मिट्टी के नाम से भी जाना जाता है। काली मिट्टी का निर्माण ज्वालामुखी लावा के अपक्षय अपरदन से हुआ है। इसके काले रंग का कारण ह्यूमस, लोहा, मैग्नेटाइट, व अल्युमिनियम सिलिकेट हैं। काली मिट्टी में कपास की अच्छी पैदावार होती है। इसी कारण इसे कपास की काली मिट्टी भी कहा जाता है। काली मिट्टी में नमी धारण करने की बेहतरीन क्षमता होती है। यह गीली होने पर चिपचिपी हो जाती है और सूखने पर इसमें दरारें पड़ जाती हैं। शुष्क कृषि के लिए यह सबसे उपयुक्त मृदा मानी जाती है। इस मृदा में आयरन, चूना, पोटेशियम, कैल्शियम, एल्युमिनियम, व मैग्नेशियम कार्बोनेट तत्व भारी मात्रा में पाए जाते हैं। परंतु फॉस्फोरस, नाइट्रोजन व कार्बनिक तत्वों की कमी पायी जाती है।

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लाल मिट्टी 

लाल मिट्टी अपेक्षाकृत कम उपजाई होती है। इसमें सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। कम से अधिक वर्षा वाली परिस्थिति में हुए प्राचीन क्रिस्टलीय शैलों के अपक्षय व अपरदन से निर्मित होती है। गहरे निम्न क्षेत्रों में यह दोमट प्रकार में पायी जाती है। इन क्षेत्रों में यह भूमि रागी, चावल, तंबाकू, व सब्जियों की कृषि के लिए उपयुक्त है। जब्कि ऊँचाई वाले क्षेत्रों में यह कंकड़ीली मृदा के रूप में पायी जाती है। इन क्षेत्रों में इसमें आलू, बाजरा, व मूंगफली के उत्पादन के लिए उपयुक्त है। इस मृदा में जैविक पदार्थ, कार्बनिक तत्व, नाइट्रोजन, चूना, फास्फोरिक अम्ल की कमी पायी जाती है।

लैटेराइट मिट्टी 

इसकी उत्पत्ति 200 सेमी. से अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में चूना व सिलिका के निक्षालन से हुई है। यह मुख्य रूप से चरागाह व झाड़-झंकार का क्षेत्र है। परंतु उर्वरक डालने से इसमें कृषि की जा सकती है। इस मिट्टी में लौह, ऑक्साइड व अल्युमिनियम ऑक्साइड की प्रचुरता पायी जाती है। लैटेराइट मृदा में नाइट्रोजन, पोटाश, चूना, कार्बनिक तत्व व फास्फोरिक अम्ल की कमी होती है।

लवणीय व क्षारीय मृदा 

यह मिट्टी, यू.पी., बिहार, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र, व तमिलनाडु के शुष्क व अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों में विस्तृत है। सोडियम और मैग्नीशियम की अधिकता के कारण यह मृदा लवणीय प्रकृति की होती है। वहीं कैल्शियम व पोटैशियम की अधिकता के कारण ये मिट्टी क्षारीय होती है। यह मृदा कृषि हेतु उपयुक्त नहीं है। यह कृषि के लिए हानिकार व अनुपजाऊ है। इस भूमि को चूना या जिप्सम मिलाकर सिंचित कर कृषि की जा सकती है। इसमें गन्ने व चालव जैसी लवणरोधी फसलें लगाकर लाभ पाया जा सकता है।

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गीली व दलदली मृदा 

यह मृदा मुख्य रूप से धान की खेती के लिए उपयुक्त है। परंतु अन्य फसलों के लिए अनुपयुक्त है। यह मिट्टी अधिकांशतः तटीय क्षेत्रों व जल जमाव वाले क्षेत्रों में पायी जाती है। बहुत अधिक आर्द्रता वाली दशाओं में बड़ी मात्रा में हुए कार्बनिक तत्वों के जमाव से इसका निर्माण होता है। इसमें घुलनशील लवणों की पर्याप्तता होती है। परंतु पोटाश व फॉस्फोरस की कमी होती है।

जंगली व पर्वतीय मिट्टी

यह निर्माणाधीन मृदा है। भारी वर्षा वाले क्षेत्रों में इस मृदा में ह्यूमस की मात्रा अधिक पायी जाती है। ह्यूमस के कारण ये अम्लीय प्रवृत्ति की है । जलवायु वा पारिस्थितिकी के अनुसार इस मृदा में भिन्नता पायी जाती है । कृषि कार्य हेतु इस मृदा में उर्वरकों की आवश्यकता पड़ती है । इस मिट्टी में चाय, काफी, मसाले और उष्णकटिबंधीय  फलों की खेती होती है । इस मिट्टी का क्षेत्र दक्षिण भारत के तीन राज्यों केरल, कर्नाटक, व तमिलनाडु और जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश व मणिपुर में है । इस मिट्टी में गेहूं, मक्का, जौं व मिश्रित फलों की खेती की जाती है।

शुष्क व मरुस्थलीय मृदा

शुष्क व अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों में इसका विस्तार पाया जाता है। इस मिट्टी में बालू की मात्रा अधिक होती है। इस कारण इस मृदा में ज्वार व बाजरा जैसे मोटे अनाजों की ही खेती हो पाती है। परंतु सिंचाई की सुविधा उपलब्ध होने के स्थानों पर इसमें गेहूँ व कपास की भी खेती की जा सकती है। इस मिट्टी में घुलनशील लवणों व फास्फोरस की मात्रा अधिक होती है। इसमें नाइट्रोजन व कार्बनिक तत्वों की कमी पायी जाती है।

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केंद्रीय मृदा संरक्षण बोर्ड –

मृदा अपरदन के दुष्परिणामों से निपटने के उद्देश्य से साल 1953 ई. में केंद्रीय मृदा संरक्षण बोर्ड की स्थापना की। इसका उद्देश्य मृदा संरक्षण के लिए कार्य करना तय किया गया।

मृदा अपरदन के दुष्परिणाम –

  • मिट्टी की उर्वरता में कमी
  • जल धाराओं में गाद का जमना
  • नदियों में बाढ़ का आना
  • अपमृदा जल स्तर का नीचे जाना
  • बाँधों की दीवारों पर बढ़ता दाब

– भारत की मिट्टियां लेख समाप्त।

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