‘इल्तुतमिश (Iltutmish)’ 1210 ई. में दिल्ली सल्तनत का शासक बना। दिल्ली को राजधानी बनाने वाला यह पहला सुल्तान था।
इल्तुतमिश की जीवनी –
यह भारत में प्रथम इल्बारी वंश का संस्थापक था। यह ऐबक का दामाद व दास था। इसके पिता का इसके लिए अधिक स्नेह इसके भाइयों के मन में इसके प्रति ईर्ष्या का कारण बना। पिता की अनुपस्थिति में उसके भाइयों ने उसे गुलामों के सौदागर को बेच दिया। बाद में ऐबक ने अन्हिलवाड़ की लूट के पैसों से इसे एक लाख जीतल में दिल्ली के बाजार से खरीदा। ग्वालियर विजय के बाद ऐबक ने इसे किलेदार नियुक्त किया। इसके बाद ऐबक ने इसे दिल्ली सल्तनत की सबसे महत्वपूर्ण इक्ता बदायूँ का पहला इक्तादार बनाया। 1206 ई. में खोखरों के दमन में विशेष योगदान के लिए गोरी ने इसे दासता से मुक्त करा दिया। इस तरह इसने अपने मालिक से भी पहले दासता से मुक्ति पा ली।
इल्तुतमिश के कार्य –
इसने 1211 ई. में दिल्ली को सल्तनत की राजधानी बनाया। शासक बनने के बाद इसने सुल्तान के पद को वंशानुगत बनाया। इसने सिक्कों पर टकसाल का नाम लिखवाने की प्रथा की शुरुवात की। इसने इक्ता व्यवस्था की शुरुवात की। इस व्यवस्था की शुरुवात मुख्य रूप से भारत में सामंतवादी व्यवस्था को समाप्त करने के उद्देश्य से की गई थी। ये शुद्ध अरबी सिक्के चलाने वाला पहला तुर्क था। सल्तनत कालीन दो प्रमुख सिक्के चाँदी का टंका व ताँबे का जीतल इसी ने चलाए।
ऐबक के विपरीत इसने अपने नाम का खुतबा पढ़वाया। अन्य सभी शासकों के विपरीत इसने अपनी पुत्री को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। यह परंपरा ईरान में देखने को मिलती है। यहाँ पिता के बाद पुत्री को शासिका बनाने के कई उदाहरण हैं। परंतु इसकी मृत्यु के बाद तुर्की अमीरों से एक स्त्री के शासन के अंतर्गत रहना अपमानजनक महसूस हुआ। अतः उन्होंने इल्तुतमिश के पुत्र रुकनुद्दीन को गद्दी पर बिठा दिया। इल्तुतमिश ने अपने पुत्र नासिरुद्दीन महमूद के मकबरे (सुल्तानगढ़ी) का निर्माण दिल्ली में कराया।
इल्तुतमिश का शासक बनना –
ऐबक की मृत्यु के समय ये बदायूँ का सूबेदार था। बाद में दिल्ली के अमीरों ने इसे शासन सत्ता संभालने के लिए आमंत्रित किया। इल्तुतमिश ने यहाँ आकर स्वयं को सुल्तान घोषित किया। 1211 ई. की जूद की लड़ाई में प्रतिद्वंदियों को परास्त किया। गजनी का यल्दौज व सिंध का शासक कुबाचा अब भी इसके प्रतिद्वंदी थे। 1229 ई. में इल्तुतमिश ने बगदाद के अब्बासी खलीफा से पद की वैधता प्राप्त की। इसके समय अवध में पिर्थू का विद्रोह हुआ।
तराइन की तीसरी लड़ाई –
जनवरी 1216 ई. में तराइन का तीसरा युद्ध इल्तुतमिश और यल्दौज के बीच हुआ। यल्दौज को हराकर बंदी बना लिया गया और बदायूँ लाया गया। यहीं पर इसकी कब्र है।
कुबाचा की समस्या –
यह सिंध व मुल्तान का शासक था। 1217 ई. में इल्तुतमिश ने कुबाचा से लाहौर छीन लिया था। यह कई बार इल्तुतमिश से हार चुका था। अंत में लज्जित होकर इसने सिंधु नदी में डूबकर आत्महत्या कर ली। इल्तुतमिश ने 1228 ई. में मुल्तान पर अधिकार कर दिल्ली सल्तनत में मिला लिया।
मंगोलों की समस्या –
इल्तुतमिश के ही समय मंगोल पहली बार सिंधु नदी की सीमा पर 1221 ई. में देखे गए। इस समय मंगोलों का नेता तेमुचिन (चंगेज खाँ) था। दरअसल चंगेज खाँ ने ख्वारिज्म के सुल्तान पर आक्रमण किया था। तो सुल्तान का पुत्र जलालुद्दीन मंगबरनी भागकर भारत की ओर आ गया। उसी का पीछा करता हुआ चंगेज खाँ सिंधु नदी के तट पर आ रुका। मंगबरनी ने शरण मांगने के लिए अपने दूत इल्तुतमिश के दरबार में भेजे। परंतु इल्तुतमिश ने दूत की हत्या करवा दी और कहलवाया ‘दिल्ली की जलवायु आपके अनुकूल नहीं है।’ इस तरह इसने भारत में नवस्थापित तुर्की साम्राज्य को मिटने से बचा लिया।
चंगेज खाँ का उद्देश्य भारत पर आक्रमण करना न था। परंतु यदि इल्तुतमिश ने मंगबरनी को शरण दी होती तो शायद भारत को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती। बाद में खोखरों की सहायता से मंगबरनी ने कुबाचा को हरा दिया। मंगबरनी तीन साल तक भारत में रहकर 1224 ई. में बापस चला गया। इसके पंजाब में ठहरने से कुबाचा की शक्ति नष्ट हो गई।
बंगाल की समस्या –
इसके शासक बनने के बाद अलीमर्दान खाँ ने स्वयं को बंगाल का शासक घोषित कर दिया। उसने सुल्तान अलाउद्दीन की उपाधि धारण कर ली। दो साल बाद हुसामुद्दीन एवाज खिलजी ने इसकी हत्या कर दी और खुद शासक बन गया। इसने सुल्तान गयासुद्दीन की उपाधि धारण की। 1226 ई. में इल्तुतमिश के पुत्र नासिरुद्दीन महमूद ने बंगाल की राजधानी लखनौती पर अधिकार कर लिया। परंतु 1229 ई. में मंगोलों से लड़ते हुए नासिरुद्दीन मुहम्मद की मृत्यु हो गई। 1230-31 ई. में इल्तुतमिश ने स्वयं अभियान कर बंगाल को दिल्ली सल्तनत में मिला लिया।
चेहलगानी या चालीसा दल –
इसने तुर्क गुलामों (शम्सी दास) के एक दल का गठन किया।
इसे तुर्कान-ए-तहलगानी या चालीसा दल कहा गया।
मिन्हाज उस सिराज ने इसके सिर्फ 25 शम्सी अमीरों का ही विवरण दिया है।
इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद ये सब एक दूसरे के प्रतिद्वंदी बन गए।
इल्तुतमिश के अभियान –
1226 ई. में इसने रणथम्भौर जीता।
ग्वालियर विजय के बाद इल्तुतमिश ने सिक्कों पर अपनी पुत्री रजिया का नाम अंकित करवाना शुरु किया।
इसने उज्जैन के महाकाल मंदिर को भी लूटा व ध्वस्त कर दिया।
यहाँ से विक्रमादित्य की मूर्ति दिल्ली लाया।
इल्तुतमिश के समय के प्रमुख व्यक्ति –
इसी के काल में 1221 ई. में बख्तियार काकी दिल्ली आए।
नूरुद्दीन मुहम्मद औफी ने 1231 ई. में इसके दरबार में ‘जवामि उल हिकायत’ की रचना की।
चुम्बकीय कम्पास का पहला साक्ष्य इसी पुस्तक में मिलता है।
अंतिम अभियान व मृत्यु –
इसका अंतिम अभियान 1936 ई. में उत्तर पश्चिम में स्थित बामियान पर हुआ।
यह खोखर जनजाति की शक्ति का प्रमुख केंद्र था।
इसी अभियान के दौरान इसके पेट में असहनीय दर्द उठा।
इसे उपचार के लिए दिल्ली लाया गया।
यहाँ पर इसकी मृत्यु हो गई।