लोकोक्तियाँ और उनके अर्थ
काठ की हाड़ी बार बार नहीं चढ़ती – किसी के साथ कपटता या धोखेबाजी बार बार नहीं की जा सकती।
जिसकी लाठी उसकी भैंस – ताकत के दम बर निर्णय होना।
घर की मुर्गी दाल बराबर – घर की वस्तु को लोग महत्व नहीं देते।
कूपमण्डूक होना – सीमित क्षेत्र का ही अनुभव होना।
नाच न आवे आँगन टेढ़ा – अयोग्य होने पर बहाने बनाना।
कागा चला हंस की चाल – अयोग्य व्यक्ति का योग्य जैसा दिखने का प्रयास करना।
थोथा चना बाजे घना – थोड़ा मिल जाने पर ही घमंड करने लगना।
घर का जोगी जोगड़ा आन गाँव का सिद्ध – गुणवान होने पर भी अपने स्थान पर प्रशंसा नहीं मिलती।
अंत भला तो सब भला – अंत में जिसका परिणाम सही निकले उसे सही ही माना जाता है।
अंधा क्या चाहे दो आँखें – सर्वाधिक जरूरी वस्तु की लालसा।
घर में नहीं है खाने को अम्मा चली भुनाने को – समाज में झूठी शान का दिखावा करना।
अंधी पीसे कुत्ता खाय – परिश्रमी के चिंता न करने पर उसका लाभ दूसरे उठा लेते हैं।
जैसा देश वैसा भेष – परिस्थिति के अनुसार ढल जाना।
अंत बुरे का बुरा – बुरे काम का परिणाम बुरा ही होता है।
गुड़ खाये गुलगुलो से परहेज – दिखावटी परहेज।
अंधों में काना राजा – पूरे मूर्खों के बीच कम ज्ञान वाले का भी सम्मान होता है।
अक्ल बड़ी या भैंस – बौद्धिक शक्ति की तुलना शारीरिक शक्ति से करना।
अपना हाथ जगन्नाथ – अपना काम स्वयं करना ही सर्वश्रेष्ठ है।
अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता – अकेला व्यक्ति निर्बल होता है।
आँख के अंधे नाम नयनसुख – गुणों के विपरीत नाम रखना।
घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खायेगा क्या – मेहनत का पारिश्रमिक मांगने में संकोच कैसा?
आई मौज फकीरी की दिया झोपड़ा फूँक – मनमौजी लोग लाभ हानि का नहीं सोंचते।
आगे नाथ न पीछे पगही – जिम्मेदारियों से परे, पूर्णतः स्वतंत्र व्यक्ति जिसका कोई सगा संबंधी न हो।
गेहूँ के साथ घुन भी पिसता है – बुरे की संगति में भला आदमी भी मरता है।
आधी तज सारी को धाय, आधी मिले न सारी पाय – लालच के चक्कर में सब चला जाता है।
आम के आम गुठलियों के दाम – दोनो तरह से फायदा होना।
खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है – संगत का प्रभाव एक दूसरे पर पड़ता है।
जंगल में मोर नाचा किसने देखा – गुणों की कदर गुणवानों के बीच ही होती है।
आये थे हरि भजन को ओटन लगे कपास – महान कार्य को छोड़कर हीन कार्यों में जुट जाना।
आसमान से टपका खजूर में अटका – एक मुसीबत से निकलते ही दूसरी में फंस जाना।
उतर गई लोई तो क्या करेगा कोई – निर्लज्ज बन जाने पर क्या परवाह करना।
उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे – गलती होने पर भी गलती न मानना और सीनाजोरी करना।
ऊँट के मुह में जीरा – आवश्यकता से बहुत कम वस्तु।
ऊँची दुकान का फीका पकवान – सिर्फ बाहरी प्रदर्शन।
चिराग तले अँधेरा – अपनी बुराई नहीं दिखती।
न ऊधौ का लेन न माधो का देन – किसी से मतलब न रखना।
एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं – विपरीत विचारधारा या मत का एक साथ होना संभव नहीं।
एक हाथ से ताली नहीं बजती – झगड़ा एक तरफ से नहीं होता।
कभी गाड़ी नाव पर कभी नाव गाड़ी पर – समय परिवर्तनशील है, कभी कोई किसी के काम आता है कभी कोई किसी के।
ओखली में सर दिया तो मूसलों से क्या डरना – मुसीबत मोल लेने के बाद कैसा डर।
आँख के अंधे गाँठ के पूरे – मूर्ख होने पर भी धन का बराबर हिसाब रखने वाला।
कभी घी घना, कभी मुट्ठी भर चना, कभी वह भी मना – परिस्थितियों के अनुसार जो मिले उसमें संतुष्ट रहना।
कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तेली – एक दूसरे से पूरी तरह से पृथक।
कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनवा जोड़ा – बेमेल वस्तुओं के संग्रहण से काम की वस्तु बनाना।
न रहेगा बाँस न बजेगी बांसुरी – कारण के बिना कार्य सिद्ध नहीं होगा।
कोयले की दलाली में हाथ काले – बुरी संगत से कलंक तो लगता ही है।
अधजल गगरी छलकत जाये – कम ज्ञान वाला व्यक्ति अधिक बोलता है।
एक पंथ दो काज – एक प्रयास से दो कार्य सिद्ध हो जाना।
लोकोक्तियाँ और उनके अर्थ ।