लोदी वंश : बहलोल लोदी, सिकंदर लोदी, इब्राहिम लोदी

लोदी वंश दिल्ली सल्तनत का आखरी वंश था। यह दिल्ली सल्तनत के पांच वंशों गुलाम वंश, खिलजी वंश, तुगलक वंश, सैय्यद वंश, लोदी वंश में से एक था। इस लेख में दिल्ली सल्तनत के लोदी वंश की जानकारी दी गई है।

लोदी वंश –

इस वंश की स्थापना अफगान सरदार बहलोल लोदी ने की थी। यह दिल्ली सल्तनत का पहला अफगान साम्राज्य था। इसके बाद शेरशाह सूरी ने दिल्ली पर द्वितीय अफगान साम्राज्य स्थापित किया। सर्वप्रथम बलबन ने मेवातियों से लड़ने हेतु 3000 अफगानों की नियुक्ति की थी। 1412 से 1414 के बीच अफगान सरदार दौलतखाँ लोदी ने दिल्ली शासन को अपने नियंत्रण में रखा।

बहलोल लोदी (1451-89 ई.)

इसका जन्म अपनी माता की मृत्यु के बाद सीजेरियन (सर्जरी) के माध्यम से हुआ था। इसका पालनपोषण इसके चाचा सुल्तानशाह (इस्लाम खाँ) ने किया था। इस्लाम खाँ को खिज्र खाँ ने मुल्तान व सरहिंद का सूबेदार बनाया था। अपने पुत्रों के होते हुए इसने अपने भतीजे बहलोल को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। बहलोल पहले लाहौर फिर सरहिंद का सूबेदार बना। बहलोल का राज्याभिषेक दो बार हुआ। यह सिंहासन के स्थान पर अपने सरदारों के साथ कालीन पर बैठता था। बहलोली सिक्का चलाया जो अकबर के पहले तक प्रयोग किया जाता रहा। बहलोल का कार्यकाल सल्तनतकाल के शासकों में सर्वाधिक (38 वर्ष) रहा।

अभियान –

बहलोल का प्रमुख शत्रु जौनपुर का शर्की शासक था। 1484 ई. में इसने जौनपुर को हुसैनशाह शर्की से जीत लिया। अपने पुत्र बारबकशाह को जौनपुर का शासक नियुक्त किया। बहलोल ने अंतिम आक्रमण ग्वालियर के कीर्तिसिंह(रायकरण) पर किया। महमूदशाह से शमसाबाद जीतने के बाद कीर्तिसिंह को वहाँ का सूबेदार नियुक्त किया। ग्वालियर से लौटते समय जलाली शहर के निकट 1489 ई. में बहलोल लोदी की मृत्यु हो गई। मृत्यु से पूर्व इसने अपने तीसरे पुत्र निजाम खाँ को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था।

सिकंदर लोदी (1489-1517 ई.)

1489 ई. में निजाम खाँ सिकंदर लोदी के नाम से शासक बना। बहलोल के बिपरीत ये सिंहासन पर बैठता था। यह लोदी वंश का सबसे प्रसिद्ध व शक्तिशाली शासक था। ये एक हिंदू माँ जैबंद का पुत्र था। यह गुलरुखी के उपनाम से कविताएं लिखता था। ये शहनाई सुनने का शौकीन था। इसने मियां भुवा को अपना वजीर नियुक्त किया। मियां भुवा ने ही आयुर्महावैदिक का संस्कृत से फारसी में अनुवाद फहरंगे सिकंदरी के नाम से किया। गुजरात का महमूद बेंगड़ा और मेवाड़ का राणा सांगा इसके समकालीन थे। 1517 ई. में गले की बीमारी से सिकंदर लोदी की मृत्यु हो गई।

सल्तनत में सबसे अच्छी गुप्तचर व्यवस्था सिकंदर लोदी की ही थी। इसने राजस्थान के बादलगढ़ किले का निर्माण कराया। भूमि पैमाइश के लिए गज-ए-सिकंदरी चलाया। ये कालांतर में 1586 ई. (गज-ए-इलाही के प्रवर्तन) तक प्रचलन में रहा। लेखा परीक्षण प्रणाली की शुरुवात की। इसने खाद्यान्नों पर से चुंगी कर हटा लिया। इसने ताँबे का टंका चलाया। इसने एक अनुवाद विभाग की स्थापना की। कई संस्कृत ग्रंथों का फारसी में अनुवाद कराया। मस्जिदों को सरकारी संस्थाओं का रूप देकर शिक्षा का केंद्र बनाया। आगरा, मथुरा और मारवाड़ में मदरसों का निर्माण कराया।

सिकंदर लोदी की धार्मिक नीति –

धार्मिक रूप से सिकंदर उदार शासक नहीं था।

  • इसने जजिया कर को पुनः लगा दिया।
  • मुस्लिम नाइयों द्वारा हिंदुओं के बाल काटने व दाढ़ी बनाने पर रोक लगा दी।
  • शिया मुस्लिमों को ताजिया निकालने पर प्रतिबंध लगा दिया।
  • मुस्लिम स्त्रियों का पीरों और फकीरों की मजार पर जाना प्रतिबंधित कर दिया।
  • बहराइच में सूफी सालार मसूद गाजी की दरगाह पर उत्सव मनाने पर प्रतिबंध लगा दिया।
  • यमुना तट पर मुंडन पर रोक लगा दी।
  • थानेश्वर में हिंदुओं के मेलों पर प्रतिबंध लगा दिया।
  • हिंदू व मुस्लिम धर्म को एक समान पवित्र बताने वाले ब्राह्मण बोधन को जिंदा जलवा दिया।
  • नगरकोट के मंदिर को ध्वस्त कर दिया।
 आगरा नगर –

1504 ई. में सिकंदर लोदी ने ही आगरा नगर बसाया।

1506 ई. में आगरा को सल्तनत की राजधानी बनाया।

इसके बाद मुगल काल में शाहजहाँ तक ये भारत की राजधानी रही।

अभियान –
  • सिकंदर लोदी ने सर्वप्रथम अपने भाई बारबकशाह को पराजित कर जौनपुर को सल्तनत में मिला लिया।
  • इसके समय जौनपुर के जमींदारों ने विद्रोह कर दिया।
  • 1504 ई. में धौलपुर के शासक विनायकदेव को पराजित किया।
  • 1507 ई. में अवंतगढ़ किले पर अधिकार कर लिया। यहाँ की स्त्रियों ने जौहर कर लिया।
  • इसके बाद नरवर को जीता।

इब्राहिम लोदी (1517-26 ई.)

इब्राहिम लोदी 1517 ई. में सल्तनत का सुल्तान बना। इसी समय कुछ सरदारों ने इब्राहिम के छोटे भाई जलाल खाँ को जौनपुर की गद्दी पर बिठा दिया। इसने ग्वालियर को जीतकर दिल्ली सल्तनत में मिला लिया। ग्वालियर के शासक विक्रमादित्य से किला जीतकर उसे शमसाबाद की जागीर दे दी। इसने सार्वजनिक रूप से दैवीय अधिकारों की घोषणा की। इसने कहा ”राजा का कोई सगा-संबंधी नहीं होता”। ये लोदी वंश व दिल्ली सल्तनत का अंतिम सुल्तान था। युद्ध भूमि में मरने वाला दिल्ली सल्तनत का पहला एवं एकमात्र शासक इब्राहिम लोदी ही था।

पानीपत की लड़ाई

इब्राहीम लोदी और बाबर के बीच पानीपत की पहली लड़ाई हुई। इस युद्ध में इब्राहीम लोदी की हार हुई और वह मारा गया। यहीं से भारत में सल्तनत काल समाप्त हो गया। इसके स्थान पर भारत में मुगल वंश की स्थापना हुई। इब्राहीम लोदी युद्ध भूमि में मरने वाला सल्तनल काल का एकमात्र शासक था। पानीपत के ही मैदान में बाबर ने ईंटो का चबूतरा बनाकर इसे उसमें दफना दिया।

सैय्यद वंश : खिज्र खाँ, मुबारकशाह, मुहम्मदशाह,आलमशाह

सैय्यद वंश दिल्ली सल्तनत पर स्थापित चौथा राजवंश था। यह दिल्ली सल्तनत के पांच राजवंशों गुलाम वंश, खिलजी वंश, तुगलक वंश, सैय्यद वंश, लोदी वंश में से एक है। इस लेख में सैय्यद वंश की जानकारी दी गई है। इसने दिल्ली सल्तनत पर 1414 ई. से 1451 ई. तक 37 वर्ष शासन किया। सैय्यद वंश के कुल चार शासक हुए। इस वंश की स्थापना तैमूर के सूबेदार खिज्र खाँ ने की। इस काल में न तो साम्राज्य विस्तार हुआ और न ही प्रशासनिक सुधार।

खिज्र खाँ (1414-21 ई.)

खिज्र खाँ मुल्तान के सूबेदार मलिक सुलेमान का पुत्र था। पिता की मृत्यु के बाद इसे मुल्तान का गवर्नर नियुक्त किया गया था। फिरोजशाह के काल में मुल्तान की जागीर इसी को पास थी। परंतु फिरोज तुगलक की मृत्यु के बाद अव्यवस्था फैल गई। तब मल्लू इकबाल के भाई सारंग खाँ ने इसे बंदी बना लिया। परंतु ये उसकी कैद से निकलने में सफल रहा। 1398 ई. में तैमूर के भारत पर आक्रमण में इसने उसकी सहायता की थी। आक्रमण के बाद तैमूर बापस समरकंद चला गया। जाते वक्त वह खिज्र खाँ को दीपालपुर, मुल्तान व लाहौर का सूबेदार नियुक्त कर गया। तैमूर ने इसे रैयत ए आला की उपाधि दी थी।

1414 ई. में इसने दौलत खाँ लोदी को पराजित कर दिल्ली पर अधिकार कर लिया। बुखारा के शेख जलालुद्दीन ने इसे सैय्यद कहकर पुकारा था। इसीलिए इसके द्वारा स्थापित वंश सैय्यद वंश कहलाया। इसने कभी सुल्तान की उपाधि धारण नहीं की। बल्कि वह तैमूर के प्रतिनिधि के तौर पर कार्य करता रहा। यह तैमूर के उत्तराधिकारी शाहरुख को भारत से निरंतर राजस्व भेजता रहा। इसने खुतबे में भी शाहरुख का ही नाम पड़वाया। इसने सिक्कों पर तुगलक शासकों के ही नाम रहने दिये। इसने मिलक तोफा (मलिक उस शर्क) को  ताजुलमुल्क की उपाधि देकर अपना वजीर नियुक्त किया।

मुबारकशाह (1421-34 ई.)

मुबारकशाह सैय्यद वंश का अगला शासक बना। यह खिज्र खाँ का पुत्र था। खिज्र खाँ ने अपनी मृत्यु शैया पर इसे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था। शासक बनने के बाद इसने शाह की उपाधि धारण की। इसने अपने नाम का सिक्का चलवाया और खुतबा पढ़वाया। यह सैय्यद शासकों में सबसे योग्य था। सरवर उल मुल्क को इसने अपना वजीर नियुक्त किया। जो कि हिंदू धर्म से परिवर्तित एक मुसलमान था। इस समय उत्तर पश्चिम सीमा पर बसी खोखर जनजाति ने विद्रोह किया। इसे दबाने के लिए मुबारकशाह ने अफगान सरदार बहलोल लोदी को भेजा। परंतु ये खोखर नेता जसरथ से जा मिला। फरवरी 1434 ई. में वजीर सरवर उल मुल्क ने मुबारकशाह की हत्या शहर का निरीक्षण करते वक्त कर दी।

याहिया बिन सरहिंदी अहमद –

मुबारकशाह ने सरहिंदी अहमद को आश्रय प्रदान किया था। सरहिंदी अहमद की रचना तारीख-ए-मुबारकशाही उसके इसी आश्रयदाता को समर्पित है। इस पुस्तक में खिज्र खाँ को सैय्यद (पैगम्बर मुहम्मद का वंशज) बताया गया है।

मुहम्मदशाह (1434-45 ई.)

मुहम्मदशाह सैय्यद वंश का तीसरा शासक बना।

इसने बहलोल लोदी को पुत्र कहकर पुकारा।

इसी ने बहलोल लोदी को खानेखाना (खान-ए-जहाँ) की उपाधि दी।

मुहम्मदशाह पूरी तरह से बहलोल लोदी पर ही निर्भर हो गया।

आलमशाह (1445-51 ई.)

अलाउद्दीन आलमशाह सैय्यद वंश का अंतिम शासक था।

वजीर हमीद खाँ से इसका विवाद हो गया।

हमीद खाँ ने बहलोल लोदी को शासक बनने के लिए आमंत्रित किया।

आलमशाह बदायूँ भाग गया। इस तरह दिल्ली सल्तनत पर बहलोल लोदी का अधिकार हो गया।

1476 ई. में अपनी मृत्यु तक आलमशाह बदायूं में ही रहा।

इसके बाद जौनपुर के शासक हुसैनशाह शर्की ने बदायूँ को अपने शासन में मिला लिया।

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