भारत में ब्रिटिशकाल में मुख्य रूप से तीन प्रकार की भूराजस्व व्यवस्थाएं प्रचलन में आयीं। ये भूराजस्व व्यवस्था : रैयतवाड़ी, महालवाड़ी, स्थायी/इस्तमरारी बंदोबस्त थीं।
- रैयतवाड़ी व्यवस्था (51% क्षेत्र पर)
- महालवाड़ी व्यवस्था (30% क्षेत्र पर)
- स्थायी बंदोबस्त या इस्तमरारी बंदोबस्त (19% क्षेत्र पर)
अंग्रेजों ने साल 1772 ई. में पंचशाला बंदोबस्त की शुरुवात की थी। इसके तहत उच्चतम बोली लगाने वाले को लगान बसूली का अधिकार दिया जाता था। इसी से जमींदारी व्यवस्था को बल मिला। 1777 ई. में पंचशाला बंदोबस्त खत्म होने पर सालाना बंदोबस्त की शुरुवात की गई। भूराजस्व नीतियों में सुधार के उद्देश्य से 1786 ई. में राजस्व परिषद् (Revenue Board) का गठन किया गया। साल 1793 ई. के स्थायी बंदोबस्त के साथ इसकी समाप्ति हो गई।
स्थायी बंदोबस्त या इस्तमरारी बंदोबस्त
स्थाई बंदोबस्त को इस्तमरारी बंदोबस्त के नाम से भी जाना जाता है। यह व्यवस्था ब्रिटिश भारत के 19 प्रतिशत क्षेत्र पर विस्तृत थी। पिट्स इंडिया एक्ट – 1784 में ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल में स्थायी भूमि प्रबंधन की सलाह दी गई। दो साल बाद 1786 ई. में लार्ड कार्नवालिस बंगाल का गवर्नर जनरल बनकर आया। इसी ने बंगाल में स्थाई बंदोबस्त लागू किया। लगान व्यवस्था में सबसे बड़ी दुविधा थी कि जमींदारों को संग्रहकर्ता माना जाए या भूस्वामी ? जहाँ एक तरफ सर जॉन शोर जमींदारों को भूमि का स्वामी मानते थे। वहीं जेम्स ग्राण्ट सरकार को भूमि का स्वामी और जमींदारों को लगान का संग्रहकर्ता मात्र मानते थे। परंतु लार्ड कार्नवालिस शोर के विचारों से सहमत था। कार्नवालिस ने 1790 ई. में दीर्घकालीन (10 वर्षीय) लगान व्यवस्था लागू की। इस व्यवस्था को कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स की सहमति मिलने के बाद 22 मार्च 1793 ई. को स्थायी बना दिया गया।
इस्तमरारी बंदोबस्त या स्थाई बंदोबस्त –
इससे अब जमींदार ही भूमि के स्वामी बन गए। कार्नवालिस की घोषणा के अनुसार जमींदार की मृत्यु के बाद उसकी भूमि उसके उत्तराधिकारियों में बाँट दी जाएगी। भूराजस्व संबंधी इसी व्यवस्था को स्थाई बंदोबस्त या इस्तमरारी बंदोबस्त के नाम से जाना गया। इसमें भूराजस्व सदैव के लिए निर्धारित कर दिया। ये राजस्व जमींदारों को प्रतिवर्ष जमा करना पड़ता था। इस व्यवस्था में 1/11 भाग जमींदारों को और 10/11 भाग सरकार को देने की दर निर्धारित की गई।
1794 ई. में सूर्यास्त कानून लाया गया। इसके तहत निर्धारित तिथि के सूर्यास्त से पूर्व सरकार को भूराजस्व जमा नहीं किया गया तो जमींदारी नीलाम कर दी जाएगी। सरकार ने 3 करोड़ 75 लाख रुपये भूराजस्व निर्धारित किया था। परंतु किसानों से जमींदार 13 करोड़ रुपये बसूलते थे। इसी से जमींदारी व्यवस्था में किसानों के शोषण का अंदाजा लगाया जा सकता है। यह व्यवस्था बंगाल, बिहार, उड़ीसा, उत्तरी कर्नाटक, व उत्तर प्रदेश के वाराणसी व गाजीपुर क्षेत्र में विस्तृत थी।
रैयतवाड़ी व्यवस्था
1792 ई. में कर्नल रीड व मुनरो को मद्रास के नए विजित क्षेत्रों का प्रशासक बनाया गया। इन्होंने लगान को जमींदारों की जगह सीधे किसानों से बसूला। किसानों के साथ किए गए इसी व्यक्तिगत लगान समझौते को रैयतवाड़ी व्यवस्था कहा गया। पहली बार यह व्यवस्था 1792 ई. में कर्नल रीड ने मद्रास प्रेसीडेंसी के बारामहल जिले में लागू की। मुनरो ने इसका खूब समर्थन किया। 1820 ई. में यह व्यवस्था मद्रास में लागू की गई। इसके सफल संचालन के लिए मुनरो को मद्रास का गवर्नर नियुक्त किया गया। 1825 ई. में यह व्यवस्था बम्बई में लागू की गई। 1858 ई. में यह व्यवस्था संपूर्ण दक्कन व अन्य क्षेत्रों में भी लागू की गई। इस व्यवस्था के अंतर्गत ब्रिटिश भारत का सर्वाधिक (51 प्रतिशत) क्षेत्र आता था। रैयतवाड़ी व्यवस्था मद्रास, बम्बई, पूर्वी बंगाल, असम, व कुर्ग में लागू हुई।
रैयतवाड़ी व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएं –
- किसानों को उपज का आधा भाग लगान के रूप में देना होता था।
- सरकार व किसानों के बीच बिचौलिया वर्ग नहीं था।
- भूमि का स्वामित्व किसानों को दिया गया। अब वे इसे गिरवीं रख सकते थे या बेच भी सकते थे।
- लगान की अदायगी न करने की स्थित में भूमि जब्त करने की व्यवस्था की गई।
- लगान अदायगी की हर 30 साल बाद पुनर्समीक्षा की जाएगी।
महालवाड़ी व्यवस्था
यह व्यवस्था ब्रिटेश भारत के 30 प्रतिशत क्षेत्र पर लागू थी। इसके अंतर्गत उत्तर प्रदेश, मध्य प्रांत, व पंजाब के क्षेत्र आते थे। इस व्यवस्था के जनक हाल्ट मैकेंजी हैं। महाल (जागीर/ग्राम) पर आधारित व्यवस्था में रैयतवाड़ी बंदोबस्त के मेल से इस नयी व्यवस्था का जन्म हुआ। इसमें सरकार ने किसानों से सीधे संपर्क नहीं किया। बल्कि मुखिया को बसूली का प्रमुख बनाया। परंतु किसान को जमीन बेंचने व इस पर कर्ज लेने की छूट दी।
1819 ई. के अपने प्रतिवेदन में इन्होंने इस व्यवस्था का सूत्रपात किया। इस व्यवस्था ने 1822 ई. में कानूनी रूप धारण किया। 1833 ई. में मार्टिन बर्ड और जेम्स टामसन ने इस व्यवस्था का प्रबंधन किया। 1837 ई. में इस व्यवस्था में लगान की दर कृषि का खर्चा निकालकर 2/3 तय की गई। 1855 ई. में फिर इसे उपज का 1/2 कर दिया गया। इसी व्यवस्था में पहली बार लगान निर्धारण हेतु मानचित्र व पंजियों का प्रयोग किया गया। मार्टिन बर्ड के निर्देशन में ये भूमि योजना तैयार की गई थी। मार्टिन बर्ड को ही उत्तर भारत की भूमिकर व्यवस्था का प्रवर्तक माना जाता है।