आंग्ल मैसूर युद्ध व संधियां

कुल चार आंग्ल मैसूर युद्ध हुए। सिर्फ प्रथम आंग्ल मैसूर युद्ध के अतिरिक्त अन्य तीनों में अंग्रेजों की जीत हुई।

  • प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध (1767-69 ई.)
  • द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1780-84 ई.)
  • तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1790-92 ई.)
  • चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध (1799 ई.)

प्रथम आंग्ल मैसूर युद्ध (1767-69 ई.)

मैसूर के शासक हैदर अली की फ्रांसीसियों के साथ मित्रता आंग्ल मैसूर युद्ध की वजह बनी। इस लड़ाई में मराठे व निजाम अंग्रेजों की तरफ हो गए। अंग्रेजी सेना ने जोसेफ स्मिथ के नेतृत्व में निजाम के साथ मैसूर पर आक्रमण कर दिया। परंतु बाद में महफूज खाँ के कहने पर निजाम हैदर से आ मिला। परंतु 1767 ई. में जोसेफ स्मिथ ने हैदर अली व निजाम की सेना को चंगामाघाट और त्रिनोमाली की लड़ाई में हरा दिया। अब निजाम ने फिर हैदर का साथ छोड़ दिया और अंग्रेजों से जा मिला। इस युद्ध का समापन मद्रास की संधि के तहत हुआ।

मद्रास की संधि (4 अप्रैल 1769 ई.)

अंत में 4 अप्रैल 1769 ई. को हैदर अली अंग्रेजों के बीच मद्रास की संधि हुई। इस संधि की शर्तें हैदर अली के पक्ष में थीं। हैदर अली पर यदि दूसरी कोई शक्ति आक्रमण करती है तो अंग्रेजी सेना हैदर अली की मदद करेगी। इसके तहत युद्ध बंदियों की अदला-बदली की गई। एक दूसरे के विजित क्षेत्रों को बापस कर दिया गया। यह संधि अंग्रेजों के लिए अत्यंत अपमानजनक थी। साथ ही इस युद्ध ने अंग्रेजों की अजेयता को भी समाप्त कर दिया।

द्वितीय आंग्ल मैसूर युद्ध (1780-84 ई.)

मद्रास की संधि की शर्तों का पालन नहीं किया जाना इस लड़ाई की प्रमुख वजह बनी। 1771 ई. में जब मराठों ने हैदर अली पर आक्रमण कर दिया तब मद्रास सरकार ने हैदर अली की कोई मदद नहीं की। अंग्रेजों से असंतुष्ट निजाम, मराठे व हैदर ने मिलकर त्रिगुट का निर्माण किया। कुछ छोटी मोटी लड़ाइयों के बाद वारेन हेंस्टिंग्स ने आयरकूट के नेतृत्व में एक सेना भेजी। पोर्टोनोवा के युद्ध में हैदर अली की हार हुई और वह घायल हो गया। दिसंबर 1782 ई. में हैदर अली की मृत्यु हो गई। मार्च 1784 में लार्ड मैकार्टनी और टीपू सुल्तान के बीच मंगलौर की संधि हुई।

मंगलौर की संधि ( मार्च 1784 ई.)-

मंगलौर की संधि टीपू सुल्तान और लार्ड मैकार्टनी के बीच हुई थी। इसके तहत दोनो पक्षों ने एक दूसरे के विजित प्रदेशों को लौटा दिया। एक दूसरे के बंदियों की अदला बदली की। वारेन हेंस्टिंग्स ने जब ये सुना तो इस संधि की शर्तों से झल्ला उठा।

तृतीय आंग्ल मैसूर युद्ध (1790-92 ई.)

दिसंबर 1789 में टीपू सुल्तान ने त्रावणकोर पर आक्रमण कर दिया जो कि अंग्रेजों का मित्र राज्य था। इससे कार्नवालिस नाराज हो गया और स्वयं सेना लेकर वेल्लूर, बंग्लौर पर अधिकार करता हुआ श्रीरंगपट्टम की ओर चल दिया। मराठा, निजाम व कार्नवालिस की संयुक्त सेना ने टीपू को दुर्ग में घेर लिया। 1790 ई. में अंग्रेजों ने एक संधि कर निजाम और मराठों को अपनी ओर कर लिया था। जो तृतीय आंग्ल मैसूर युद्ध में टीपू सुल्तान की हार का प्रमुख कारण सिद्ध हुआ। हार के फलस्वरूप टीपू ने कार्नवालिस से श्रीरंगपट्टम की संधि (1792 ई.) कर ली।

श्रीरंगपट्टम की संधि (1792 ई.) –

इस संधि के तहत टीपू सुल्तान को अपना आधा राज्य गवाना पड़ा। यह भाग अंग्रेजों व उसके सहयोगियों को दिया गया। अंग्रेजों को बारामहल, मालाबार और डिंडीगुला मिला। मराठों को तुंगभद्रा नदी का उत्तरी भाग मिला। निजाम को कृष्णा तथा पेन्नार नदियों के मध्य का भाग प्राप्त हुआ। साथ ही टीपू ने युद्ध क्षतिपूर्ति के तौर पर 3 करोड़ रुपये दिये। जब तक टीपू ये रकम अदा नही कर देता। तब तक उसके दो पुत्र लार्ड कार्नवालिस के पास जमानत के तौर पर रहेंगे। इसके बाद टीपू की अर्थव्यवस्था चरमरा गई। इसके बिना सैन्य व्यवस्था कर पाना बेहद मुश्किल काम था।

चतुर्थ आंग्ल मैसूर युद्ध (1799 ई.)

लार्ड वेलेजली ने टीपू के पास 1799 ई. में सहायक संधि स्वीकार करने वा प्रस्ताव भेजा।

टीपू सुल्तान ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया।

इससे क्रुद्ध होकर वेलेजली ने मैसूर पर आक्रमण कर दिया।

कर्नल वेलेजली व जनरल हेरिस ने पूरब से और जनरल स्टुअर्ट ने पश्चिम से मैसूर पर आक्रमण किया।

इस लड़ाई में टीपू की हार हुई और वह लड़ते हुए मारा गया

अंग्रजों ने श्रीरंगपट्टम पर अधिकार कर लिया।

टीपू के परिवार को वेल्लोर में कैद कर लिया गया।

वाडियार वंश के दो वर्षीय बालक कृष्णराज को मैसूर का राजा बना दिया।

अंग्रेज खुद उसके संरक्षक बन गए और मैसूर पर सहायक संधि थोप दी।

टीपू के दोनों बेटों को पेंशनभोगी बना लिया।

चतुर्थ आंग्ल मैसूर युद्ध में जीत हासिल करने के बाद वेलेजली ने गर्व से कहा, ”अब पूरब हमारे कदमों में है।”

आंग्ल मराठा युद्ध (Anglo Maratha War)

आंग्ल मराठा संघर्ष की शुरुवात पेशवा माधव नारायणराव के समय हुई। जो आगे चलकर आंग्ल मराठा युद्ध का कारण बनी। इस क्रम में कुल तीन आंग्ल मराठा युद्ध हुए –

  • प्रथम आंग्ल मराठा युद्ध (1775-82 ई.)
  • द्वितीय आंग्ल मराठा युद्ध (1803-05 ई.)
  • तृतीय आंग्ल मराठा युद्ध (1817-18 ई.)

आंग्ल मराठा युद्ध की पृष्ठभूमि –

आंग्ल मराठा संघर्ष की आग को हवा देने में प्रमुख भूमिका थी रघुनाथ राव की। ये पेशवा माधवराव का चाचा था। 1765 ई. में इसने पेशवा माधवराव से मराठा साम्राज्य के विभाजन की माँग की। इसी बात पर दोनों का मतभेद हो गया। 1772 ई. में माधवराव की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई नारायणराव पेशवा बना। परंतु इसके एक साल बाद ही 1773 ई. में रघुनाथराव ने अपने इस भतीजे पेशवा नारायणराव की हत्या कर दी। रघुनाथराव (रघोवा) ने यह हत्या स्वयं पेशवा बनने के उद्देश्य से की थी। परंतु उसका उद्देश्य पूर्ण नहीं हुआ।

अब उसने पूना से दिल्ली भागकर अंग्रेजों से मराठाओं के विरुद्ध सहायता मांगी। बम्बई की अंग्रेज सरकार ने रघुनाथराव की सहातया की हामी भर दी और उससे सूरत की संधि की। बम्बई सरकार ने यह संधि गवर्नर जनरल और उसकी काउंसिल की सलाह लिए बिना की थी।

सूरत की संधि – 7 मार्च 1775 ई.

इस संधि की कुल 16 शर्तें थीं। यह संधि रघुनाथराव और बम्बई सरकार के मध्य हुई थी। संधि के तहत अंग्रेज 2500 सैनिकों की सहायता से रघुनाथराव को पेशवा बनाने में मदद करेंगे। परंतु इसका व्यय रघुनाथराव ही वहन करेगा। सहायता के बदले सालसेट, सूरत के आस पास के टापू और भड़ौच व बसीन की आय वह अंग्रेजों को देगा। साथ ही बंगाल और कर्नाटक के क्षेत्र पर मराठा आक्रमण नहीं करेंगे।

प्रथम आंग्ल मराठा युद्ध (1775-82 ई.)

18 मई 1775 ई. को आरस के मैदान में अंग्रेजों और मराठा सेना के बीच भयंकर युद्ध हुआ। इसमें अंग्रेजी सेना का नेतृत्व कर्नल कीटिंग ने किया। इस युद्ध में मराठों की पराजय हुई। परंतु पूना पर उनका अधिकार बना रहा।

पुरंदर की संधि (1 मार्च 1776 ई.)

अब कलकत्ता सरकार ने बम्बई सरकार की सूरत की संधि को मानने से इनकार कर दिया। वारेन हेंस्टिंग्स ने कर्नल अप्टन को पूना दरबार में भेजा और मराठों से पुरंदर की संधि की। इस संधि के तहत सूरत की संधि को रद्द कर दिया गया। मराठों ने युद्ध पूर्ति के तौर पर 12 लाख रुपये देना स्वीकार किया। रघुनाथ राव मराठों से 25 हजार की मासिक पेंशन लेकर गुजरात के कोपरगाँव में रहेगा।

यह संधि भी कार्यान्वित न हो सकी। बम्बई की सरकार इस संधि को नकार कर रघुनाथराव को आश्रय देती रही। बम्बई सरकार के विरोध के फलस्वरूप वारेन हेंस्टिंग्स को अपनी नीति बदलनी पड़ी। वारेन हेंस्टिंग्स ने सूरत की संधि को स्वीकार कर लिया। क्योंकि कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स ने सूरत की संधि को मंजूरी प्रदान कर दी। अब बम्बई सरकार ने फिर युद्ध छेड़ दिया। नवंबर 1778 ई. में एक सेना कर्नल इगर्टन के नेतृत्व में पूना भेजी। जनवरी 1779 ई. में इस सेना का नेतृत्व कर्नल कौकबर्न को सौंप दिया। 9 जनवरी 1779 ई. को तालगाँव की लड़ाई में अंग्रेजों की हार हुई।

बड़गाँव की संधि – 1779 ई.

यह संधि अंग्रेजों के लिए बेहद अपमानजनक थी। इसके तहत 1773 ई. में बम्बई सरकार द्वारा जीती गई सारी भूमि लौटानी पड़ी। सिंधिया को भड़ौच के राजस्व का एक हिस्सा मिलेगा। बंगाल से पहुंचने वाली फौज को हटा लिया जाएगा।

वारेन हेंस्टिंग्स ने इस संधि को स्वीकार नहीं किया। उसने मराठों के विरुद्ध कर्नल गोडार्ड के नेतृत्व में बंगाल से सेना भेजी। इस सेना ने 15 फरवरी को अहमदाबाद और 11 दिसंबर 1780 ई. को बसई पर कब्जा कर लिया। बाद में 1781 ई. में इस सेना ने पूना पर आक्रमण किया। पूना में मराठों ने इस सेना को हरा दिया। इसके बाद हेस्टिंग्स ने कैप्टन पौपहम के नेतृत्व में बंगाल से एक दूसरी सेना भेजी। अगस्त 1781 ई. में इस सेना ने ग्वालियर पर कब्जा कर लिया।

सालबाई की संधि (17 मार्च 1782)-

यह संधि सिंधिया की मध्यस्थता से अंग्रेज व मराठों के बीच हुई। इसके तहत माधव नारायणराव को पेशवा मान लिया गया। थाना का दुर्ग और सालसेट द्वीप अंग्रेजों को दे दिए। यमुना के पश्चिम की सारी भूमि सिंधिया को पुनः प्राप्त हो गई। हैदर अली को अरकाट के नबाव से जीती हुई भूमि छोड़नी पड़ी।

द्वितीय आंग्ल मराठा युद्ध (1803-05 ई.)

अंग्रेजों ने अब मराठों के सभी ठिकानों पर आक्रमण करने का निर्णय किया। ये सैन्य अभियान दो प्रमुख क्षेत्रों में चलाया जाना तय हुआ। आर्थर वेलेजली के नेतृत्व में दक्कन में और जनरल लेक के अधीन उत्तर भारत में। 12 अगस्त 1803 ई. को वेलेजली ने अहमदनगर पर कब्जा कर लिया। यह क्षेत्र निजाम की सीमा पर अवस्थित था। इसके बाद 23 सितंबर 1803 ई. को भोसले और सिंधिया की संयुक्त सेना को पराजित किया। ग्रांड डफ ने इस लड़ाई का वर्णन किया है। इसके बाद अक्टूबर में बुरहानपुर, असीरगढ़, गाविगलढ़, दिल्ली, व आगरा पर अंग्रेजों ने कब्जा कर लिया। इसके अतिरिक्त गुजरात, बुंदेलखंड और उड़ीसा में भी अंग्रेजों को सफलता प्राप्त हुई। इन भयानक पराजयों के बाद मराठों को दो अलग-अलग संधियां करनी पड़ीं। द्वितीय आंग्ल मराठा युद्ध के परिणामस्वरूप मराठा संघ छिन्न भिन्न हो गया।

देवगाँव की संधि (17 दिसंबर 1803) –

यह संधि अंग्रेजों और भोसले के बीच हुई थी। इसके तहत भोसले ने बालासोर, कटक प्रांत, और वर्धा नदी के पश्चिम का अपना सारा क्षेत्र अंग्रेजों को सौंप दिया। अंग्रेजों की अनुमति के बिना किसी विदेशी को नहीं रखा जा सकता। नागपुर में एक ब्रिटिश रेजिमेंट रखना पड़ेगा। पहली बार एलफिंस्टन को रेजिमेंट बनाकर भेजा गया।

सुर्जी-अर्जनगाँव की संधि (30 दिसंबर 1803) –

यह संधि अंग्रेजों और सिंधिया के बीच हुई। इसके तहत गंगा-यमुना के बीच का क्षेत्र, गोहदा, अहमदनगर, भड़ौच, जयपुर व जोधपुर अंग्रेजों को प्राप्त हुए। जॉन मैलकम को उसके दरबार में रेजिमेंट नियक्त किया गया। 27 फरवरी 1804 ई. को सिंधिया ने सहायक संधि स्वीकर कर ली।

अप्रैल 1804 ई. में होल्कर की अंग्रेजों से लड़ाई प्रारंभ हो गई। होल्कर अब तक इन युद्धों से पृथक था। होल्कर ने मुकुंदरा घाटी में कर्नल मौन्सन को पराजित कर आगरा की ओर भगा दिया। इसके बाद अक्टूबर 1804 ई. में होल्कर ने दिल्ली में घेरा डाल दिया। 17 नवंबर 1804 ई. को होल्कर जनरल लेक से पराजित हो गया। 7 जनवरी 1806 ई. को होल्कर ने अंग्रेजों से संधि कर ली। होल्कर ने चंबल, बूंदी, बुंदेलखंड, रामपुर, टोंक, व कूच के क्षेत्रों से अपने दावे खारिज कर दिए।

तृतीय आंग्ल मराठा युद्ध (1817-18 ई.)

आंग्ल मराठा युद्ध का तीसरा चरण हेंस्टिंगस के आने के बाद प्रारंभ हुआ। हेंस्टिंगस ने पिंडारियों के विरुद्ध अभियान चलाया। दरअसल ये बेहद खूंखार जाति थी जिसने लूटमार का माहौल बना रखा था। पूना के अंग्रेज रेजिमेंट एलफिंस्टन ने पेशवा बाजीराव द्वितीय पर मराठों की प्रधानता त्यागने का दबाव डाला। अंग्रेजों के चुंगल से निकलने के लिए पेशाव ने अंग्रेजों से संघर्ष प्रारंभ कर दिया। मराठों ने अंग्रेजी कैंपों पर हमला करना शुरु कर दिया। पेशवा अंग्रेजों से हार गया और आत्मसमर्पण कर दिया। इस पराजय के बाद पूना की संधि हुई।

संधि के बाद भी पेशवा ने अंग्रेजों से दो प्रमुख लड़ाइयां लड़ीं। 1 जनवरी 1818 ई. को कोरगाँव में और 20 फरवरी 1818 ई. को अण्टी में। इन दोनों लड़ाइयों में भी पेशवा को हार का सामना करना पड़ा। 3 जून 1818 ई. को पेशवा ने जॉन मेलकम के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। बाजीराव द्वितीय को 8 लाख रुपये वार्षिक पेंशन देकर बिठूर (कानपुर, उत्तर प्रदेश) में अंतिम समय व्यतीत करने की इजाजत दी गई। मराठा साम्राज्य को ब्रिटिश नियंत्रण में ले लिया गया।

पूना की संधि (13 जून 1817 ई.) –

एलफिंस्टन ने बाजीराव द्वितीय की मर्जी के बिना उससे इस संधि पर हस्ताक्षर करवा लिए। इसके तहत मेशवा को मराठा संघ की प्रधानता छोड़नी पड़ी। कोंकण का किला अंग्रेजों को दे दिया।

ग्वालियर की संधि (5 नवंबर 1817 ई.) –

यह संधि दोलतराव सिंधिया और अंग्रेजों के बीच हुई। इसमें भी सिंधिया ने विवशतापूर्वक संधि पर हस्ताक्षर किये। पिंडारियों के दमन में अंग्रेजों की सहायता करने की बात तय हुई।

मंदसौर की संधि (6 जनवरी 1818 ई.) –

यह संधि होल्कर और अंग्रेजों के बीच हुई। इस संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए होल्कर को विवश किया गया। होल्कर ने सभी राजपूत क्षेत्रों पर अपने दावे त्याग दिए। नर्मदा के दक्षिण के सभी जिले अंग्रेजों को दे दिए। राज्य में एक सहायक सेना रखना स्वीकार किया। इंदौर में एक स्थाई अंग्रेज रेजिमेंट रखना स्वीकार किया। अपने विदेशी संबंध अंग्रेजों की इच्छा पर निर्भर कर दिए।

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