कर्नाटक युद्ध

भारत में हुए कर्नाटक युद्ध आस्ट्रिया के उत्तराधिकार युद्ध का विस्तार मात्र थे। ये युद्ध अंग्रेज और फ्रांसीसियों के बीच प्रभुसत्ता की लड़ाई के लिए हुए। इस क्रम में कुल तीन कर्नाटक युद्ध 17 वर्षों तक चले। कर्नाटक युद्ध की शुरुवात 1746 ई. में हुई और इनका अंत 1763 ई. में पेरिस की संधि से हुआ। इसी के साथ भारत में फ्रांसीसियों पर अंग्रेजों की सर्वोच्चता भी साबित हो गई।

  • कर्नाटक का प्रथम युद्ध (1746-48 ई.)
  • कर्नाटक का द्वितीय युद्ध (1749-54 ई.)
  • तृतीय कर्नाटक युद्ध (1756-63 ई.)

कर्नाटक का प्रथम युद्ध (1746-48 ई.)

इस युद्ध की पहल अंग्रेजों की तरफ से हुई। दोनों ही यूरोपीय शक्तियों ने अपनी गृह सरकारों से अनुमति लिए बिना यह युद्ध छेड़ दिया। ब्रिटेश नौसेना ने बारनैट के नेतृत्व में कुछ फ्रांसीसी जहाज पकड़ लिए। डूप्ले ने कर्नाटक के नबाव से अपने जहाजों की सुरक्षा मांगी। परंतु अंग्रेजों ने उनकी बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया। अब डूप्ले ने मॉरीशस के फ्रांसीसी गवर्नर ‘ला बूर्डोने’ से सहायता मांगी। ला बूर्डोने 3000 सैनिक ले कर कोरोमंडल तट पहुंचा। इसने मद्रास पर अधिकार कर लिया। अंग्रेजों से 40 हजार पौण्ड की राशि लेकर इसने उन्हें मद्रास बापस कर दिया। लेकिन डूप्ले ने नगर दोबारा जीत लिया। अब अंग्रेजों ने नबाव से सहातया माँगी। नबाव ने फ्रांसीसियों से घेराबंदी हटा लेने को कहा। अब डूप्ले ने कूटनीति का सहारा लिया। डूप्ले ने नबाव से कहा कि वह मद्रास से अंग्रेजों को हटाकर उसे नबाव को सौंप देगा।

सेंट थोमे की लड़ाई (1748 ई.) –

कर्नाटक के युद्ध की यह पहली लड़ाई थी। यह लड़ाई फ्रांसीसियों और कर्नाटक के नबाव अनवरुद्दीन के बीच लड़ी गयी। इसमें फ्रांसीसी सेना का नेतृत्व कैप्टन पैराडाइज ने और नबाव की सेना का नेतृत्व महफूज खाँ ने किया। इस लड़ाई मे छोटी सी फ्रांसीसी सेना ने नबाव की बड़ी सेना को हरा दिया।

ए ला शापेल की संधि (1748 ई.) –

‘ए ला शापेल’ की संधि से आस्ट्रिया का उत्तराधिकार युद्ध समाप्त हो गया। इसी के साथ भारत में प्रथम कर्नाटक युद्ध की भी समाप्ति हो गई। इस संधि के तहत मद्रास(भारत) अंग्रेजों को लुईवर्ग(अमेरिका) फ्रांसीसियों को मिल गया।

कर्नाटक का द्वितीय युद्ध (1749-54 ई.)

हैदराबाद के निजामुलमुल्क की 1748 ई. में  हुई मृत्यु के बाद उत्तराधिकार की समस्या खड़ी हो गई। निजाम का पुत्र नासिरजंग उत्तराधिकारी बना। परंतु उसके भांजे मुजफ्फर जंग ने इसके दावे को चुनौती दी। इसी समय मराठों द्वारा चन्दा साहब को रिहा कर दिया गया। तो कर्नाटक के नबाव अनवरुद्दीन और उसके बहनोई चन्दा साहेब में विवाद हो गया। फ्रांसीसी गवर्नर डूप्ले ने इस राजनीतिक स्थित का लाभ उठाना चाहा। अतः उसने मुजफ्फरजंग को हैदराबाद का निजाम बनाने के लिए सैन्य सहायता देने की बात कही। साथ ही चन्दा साहेब को कर्नाटक का नबाव बनाने के लिए सैन्य सहातया का वचन दिया।

अम्बूर का युद्ध (1749 ई.) –

डूप्ले, मुजफ्फरजंग, और चन्दा साहब की संयुक्त सेनाओं ने कर्नाटक पर आक्रमण कर दिया। इस अम्बूर की लड़ाई में कर्नाटक के नबाव अनवरुद्दीन की पराजय के साथ मृत्यु हो गई। अनवरुद्दीन के उत्तराधिकारी पुत्र मुहम्मद अली ने भागकर त्रिचनापल्ली के दुर्ग में शरण ली। कर्नाटक का बाकी हिस्सा चन्दा साहब के अधिकार में आ गया। चन्दा साहब ने अर्काट को अपनी राजधानी बनाकर शासन करना प्रारंभ कर दिया। इसने फ्रांसीसियों को पांडिचेरी के निकट 80 ग्रामों का अनुदान दे दिया। फ्रांसीसियों ने चन्दा साहब को त्रिचिनापल्ली पर घेरा डालने की सलाह दी। इसी समय अंग्रेजों ने हैदराबाद के दूसरे दाबेदार नासिरजंग का पक्ष लिया। बाद में तिरुचिनापल्ली का घेरा हटाकर आते वक्त चन्दा साहेब की तंजौर के राजा ने हत्या कर दी। अब अंग्रेजों का साथी मुहम्मद अली कर्नाटक का नबाव बन गया। इसी समय फ्रांसीसी सरकार ने डूप्ले को बापस बुला लिया। इसकी जगह गोडेहू को पांडिचेरी का गवर्नर नियुक्त कर भेजा गया। गोडेहू ने अंग्रेजों से पांडिचेरी की संधि कर ली।

अब नासिरजंग ने अंग्रेजों की सहायता से दिसंबर 1750 ई. में कर्नाटक पर आक्रमण किया। जिंजी नदी के तट पर नासिरजंग और अंग्रेजों की संयुक्त सेना ने चन्दा साहब, मुजफ्फरजंग और डूप्ले की संयुक्त सेनाओं को परास्त कर दिया। इसी समय हैदराबाद की सेना ने नासिरजंग के खिलाफ विद्रोह कर दिया। इसमें नासिरजंग मारा गया। डूप्ले ने तुरंत मुजफ्फरजंग को हैदराबाद का निजाम बना दिया। इसके बदले मुजफ्फरजंग ने फ्रांसीसी कंपनी को 50 लाख रुपये और सैनिकों को 5 लाख रुपये दिये। डूप्ले को भी 20 लाख रुपये और 1 लाख रुपये वार्षिक आय वाली जागीर मिली। फ्रांसीसी अधिकारी बुस्सी जब मुजफ्फरजंग को अपनी संरक्षता में पांडिचेरी से ले जा रहा था। उसी वक्त रास्ते में पठानों ने मुजफ्फरजंग की हत्या कर दी। स्थिति खराब होने से पहले ही फ्रांसीसी बुस्सी ने निजाम के दूसरे बेटे सलावतजंग को निजाम बना दिया।

पाण्डिचेरी की संधि (1755 ई.) –

इस संधि के तहत अंग्रेजों और फ्रांसीसियों ने भारतीय नरेशों के आपसी झगड़ों में हस्तक्षेप न करने का निर्णय किया। इसी उद्देश्य से उन्होंने भारतीय शासकों द्वारा दी गई उपाधियों को त्यागने का निर्णय किया। दोनों कंपनियों को अपने अपने क्षेत्र बापस प्राप्त हो गए। इस संधि के बारे में डूप्ले ने कहा, ” गोडेहू ने अपने देश और विनाश पर हस्ताक्षर किए हैं। ”

परंतु यह संधि भी स्थाई शांति कायम न कर सकी। 1756 ई. में जब यूरोप में सप्तवर्षीय युद्ध प्रारंभ हुआ तो यहाँ ये दोनों फिर एक दूसरे के विरोध में आ गए।

कर्नाटक का तृतीय युद्ध (1756-63 ई.)

1757 ई. में फिर फ्रांसीसियों और अंग्रेजों ने एक दूसरे के क्षेत्रों पर आक्रमण करना प्रारंभ कर दिया। फ्रांसीसियों ने त्रिचनापल्ली पर अधिकार करने का असफल प्रयास किया। कर्नाटक के अधिकांश भागों पर उनका अधिकार हो गया। 1757 ई. में ही अंग्रेजों ने कासिम बाजार, चंद्रनगर, बालासोर, व पटना की फ्रांसीसी फैक्ट्रियों पर अधिकार कर लिया।

काउंट डी लाली –

इस युद्ध की वास्तविक शुरुवात तब हुई जब फ्रांसीसी सरकार ने काउंट डी लाली को भारत में सभी फ्रांसीसी क्षेत्रों का प्रमुख नियुक्त किया। फ्रांसीसी सरकार ने इसे भारत में फ्रांसीसी क्षेत्रों संबंधी समस्त सैन्य व असैन्य अधिकार देकर भेजा। इसने 1758 ई. में फोर्ट सेंट डेविड जीत लिया। मद्रास का घेरा डाला। परंतु अंग्रेजी नौसेना के आने के बाद इसे ये घेरा हटाना पड़ा।

वाण्डिवाश का युद्ध (22 जनवरी 1760 ई.) –

यह अंग्रेजों व फ्रांसीसियों में सम्प्रभुता की निर्णायक लड़ाई थी। इसमें अग्रेजी सेना का नेतृत्व सर आयरकूट ने किया। फ्रांसीसी सेना का नेतृत्व काउंड डी लाली कर रहा था। इस युद्ध में अंग्रेजों की जीत हुई। 1761 ई. में अंग्रेजों ने पांडिचेरी को भी अपने कब्जे में ले लिया। अगले एक वर्ष में ही फ्रांसीसियों ने अपने अधिकार के सारे क्षेत्र खो दिए। इस युद्ध का अंत पेरिस की संधि से हुआ।

पेरिस की संधि (1763 ई.) –

पेरिस की संधि पर हस्ताक्षर होने के बाद यूरोप का सप्तवर्षीय युद्ध समाप्त हो गया। फ्रांसीसियों को भारत स्थित उनके सभी कारखाने बापस कर दिए गए। परंतु अब वे न तो इनकी किलेबंदी कर सकते हैं और न ही सेना रख सकते हैं। इसी के साथ फ्रांसीसियों का भारत में साम्राज्य निर्माण का सपना मिट्टी में मिल गया। फ्रांसीसी अब सिर्फ व्यापारी मात्र रह गए।

आंग्ल मैसूर युद्ध व संधियां

कुल चार आंग्ल मैसूर युद्ध हुए। सिर्फ प्रथम आंग्ल मैसूर युद्ध के अतिरिक्त अन्य तीनों में अंग्रेजों की जीत हुई।

  • प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध (1767-69 ई.)
  • द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1780-84 ई.)
  • तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1790-92 ई.)
  • चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध (1799 ई.)

प्रथम आंग्ल मैसूर युद्ध (1767-69 ई.)

मैसूर के शासक हैदर अली की फ्रांसीसियों के साथ मित्रता आंग्ल मैसूर युद्ध की वजह बनी। इस लड़ाई में मराठे व निजाम अंग्रेजों की तरफ हो गए। अंग्रेजी सेना ने जोसेफ स्मिथ के नेतृत्व में निजाम के साथ मैसूर पर आक्रमण कर दिया। परंतु बाद में महफूज खाँ के कहने पर निजाम हैदर से आ मिला। परंतु 1767 ई. में जोसेफ स्मिथ ने हैदर अली व निजाम की सेना को चंगामाघाट और त्रिनोमाली की लड़ाई में हरा दिया। अब निजाम ने फिर हैदर का साथ छोड़ दिया और अंग्रेजों से जा मिला। इस युद्ध का समापन मद्रास की संधि के तहत हुआ।

मद्रास की संधि (4 अप्रैल 1769 ई.)

अंत में 4 अप्रैल 1769 ई. को हैदर अली अंग्रेजों के बीच मद्रास की संधि हुई। इस संधि की शर्तें हैदर अली के पक्ष में थीं। हैदर अली पर यदि दूसरी कोई शक्ति आक्रमण करती है तो अंग्रेजी सेना हैदर अली की मदद करेगी। इसके तहत युद्ध बंदियों की अदला-बदली की गई। एक दूसरे के विजित क्षेत्रों को बापस कर दिया गया। यह संधि अंग्रेजों के लिए अत्यंत अपमानजनक थी। साथ ही इस युद्ध ने अंग्रेजों की अजेयता को भी समाप्त कर दिया।

द्वितीय आंग्ल मैसूर युद्ध (1780-84 ई.)

मद्रास की संधि की शर्तों का पालन नहीं किया जाना इस लड़ाई की प्रमुख वजह बनी। 1771 ई. में जब मराठों ने हैदर अली पर आक्रमण कर दिया तब मद्रास सरकार ने हैदर अली की कोई मदद नहीं की। अंग्रेजों से असंतुष्ट निजाम, मराठे व हैदर ने मिलकर त्रिगुट का निर्माण किया। कुछ छोटी मोटी लड़ाइयों के बाद वारेन हेंस्टिंग्स ने आयरकूट के नेतृत्व में एक सेना भेजी। पोर्टोनोवा के युद्ध में हैदर अली की हार हुई और वह घायल हो गया। दिसंबर 1782 ई. में हैदर अली की मृत्यु हो गई। मार्च 1784 में लार्ड मैकार्टनी और टीपू सुल्तान के बीच मंगलौर की संधि हुई।

मंगलौर की संधि ( मार्च 1784 ई.)-

मंगलौर की संधि टीपू सुल्तान और लार्ड मैकार्टनी के बीच हुई थी। इसके तहत दोनो पक्षों ने एक दूसरे के विजित प्रदेशों को लौटा दिया। एक दूसरे के बंदियों की अदला बदली की। वारेन हेंस्टिंग्स ने जब ये सुना तो इस संधि की शर्तों से झल्ला उठा।

तृतीय आंग्ल मैसूर युद्ध (1790-92 ई.)

दिसंबर 1789 में टीपू सुल्तान ने त्रावणकोर पर आक्रमण कर दिया जो कि अंग्रेजों का मित्र राज्य था। इससे कार्नवालिस नाराज हो गया और स्वयं सेना लेकर वेल्लूर, बंग्लौर पर अधिकार करता हुआ श्रीरंगपट्टम की ओर चल दिया। मराठा, निजाम व कार्नवालिस की संयुक्त सेना ने टीपू को दुर्ग में घेर लिया। 1790 ई. में अंग्रेजों ने एक संधि कर निजाम और मराठों को अपनी ओर कर लिया था। जो तृतीय आंग्ल मैसूर युद्ध में टीपू सुल्तान की हार का प्रमुख कारण सिद्ध हुआ। हार के फलस्वरूप टीपू ने कार्नवालिस से श्रीरंगपट्टम की संधि (1792 ई.) कर ली।

श्रीरंगपट्टम की संधि (1792 ई.) –

इस संधि के तहत टीपू सुल्तान को अपना आधा राज्य गवाना पड़ा। यह भाग अंग्रेजों व उसके सहयोगियों को दिया गया। अंग्रेजों को बारामहल, मालाबार और डिंडीगुला मिला। मराठों को तुंगभद्रा नदी का उत्तरी भाग मिला। निजाम को कृष्णा तथा पेन्नार नदियों के मध्य का भाग प्राप्त हुआ। साथ ही टीपू ने युद्ध क्षतिपूर्ति के तौर पर 3 करोड़ रुपये दिये। जब तक टीपू ये रकम अदा नही कर देता। तब तक उसके दो पुत्र लार्ड कार्नवालिस के पास जमानत के तौर पर रहेंगे। इसके बाद टीपू की अर्थव्यवस्था चरमरा गई। इसके बिना सैन्य व्यवस्था कर पाना बेहद मुश्किल काम था।

चतुर्थ आंग्ल मैसूर युद्ध (1799 ई.)

लार्ड वेलेजली ने टीपू के पास 1799 ई. में सहायक संधि स्वीकार करने वा प्रस्ताव भेजा।

टीपू सुल्तान ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया।

इससे क्रुद्ध होकर वेलेजली ने मैसूर पर आक्रमण कर दिया।

कर्नल वेलेजली व जनरल हेरिस ने पूरब से और जनरल स्टुअर्ट ने पश्चिम से मैसूर पर आक्रमण किया।

इस लड़ाई में टीपू की हार हुई और वह लड़ते हुए मारा गया

अंग्रजों ने श्रीरंगपट्टम पर अधिकार कर लिया।

टीपू के परिवार को वेल्लोर में कैद कर लिया गया।

वाडियार वंश के दो वर्षीय बालक कृष्णराज को मैसूर का राजा बना दिया।

अंग्रेज खुद उसके संरक्षक बन गए और मैसूर पर सहायक संधि थोप दी।

टीपू के दोनों बेटों को पेंशनभोगी बना लिया।

चतुर्थ आंग्ल मैसूर युद्ध में जीत हासिल करने के बाद वेलेजली ने गर्व से कहा, ”अब पूरब हमारे कदमों में है।”

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