इतिहास की प्रमुख संधियाँ

इतिहास की प्रमुख संधियाँ : पुरंदर की संधि, पाणिडिचेरी की संधि, अलीनगर की संधि, इलाहाबाद की संधि, मद्रास की संधि, बनारस की संधि, सूरत की संधि, फैजाबाद की संधि, पुरंदर की संधि, बड़गाँव की संधि, सालबाई की संधि, मंगलौर की संधि, श्रीरंगपट्टम की संधि, बसीन की संधि, देवगाँव की संधि, सुर्जी-अर्जनगाँव की संधि, अमृतसर की संधि, पूना की संधि, ग्वालियर की संधि, मंदसौर की संधि, लाहौर की संधि।

पुरंदर की संधि –

पुरंदर की संधि क्षत्रपति शिवाजी और कछवाहा राजा जयसिंह के मध्य 22 जून 1665 को हुई थी। इस संधि के समय मनूची भी वहाँ उपस्थित था।

  • अधिक जानकारी के लिए शिवाजी वाली पोस्ट देखें।

पाण्डिचेरी की संधि –

पाण्डिचेरी संधि अंग्रेज और फ्रांसीसियों के बीच 1755 ई. में हुई। इसके बारे में अधिक जानकरी के लिए कर्नाटक युद्ध वाली पोस्ट देखें।

अलीनगर की संधि –

अलीनगर की संधि लार्ड क्लाइव और बंगाल के नबाव सिराजुद्दौला के बीच 9 फरवरी 1757 को हुई। इसी के तहत अंग्रेजों को सिक्के ढालने व स्थलों को दुर्गीकृत करने की अनुमति प्राप्त हुई।

इलाहाबाद की संधि –

यह इलाहाबाद की पहली संधि थी। इलाहाबाद की संधि अंग्रेजों और मुगल बादशाह शाहआलम द्वितीय के बीच 12 अगस्त 1765 ई. को हुई। इलाहाबाद की संधि पर क्लाइल, शाहआलम द्वितीय, और बंगाल के नबाव नज्मउद्दौला के हस्ताक्षर हैं। इसके तहत मुगल बादशाह ने बंगाल, बिहार, उड़ीसा की दीवानी अंग्रेजों को सौंप दी। साथ ही उत्तरी सरकार की जागीर अंग्रेजों को प्राप्त हुई। कड़ा और इलाहाबाद अवध के नबाव से लेकर मुगलों को दे दिए गए। मुगल बादशाह की पेंशन 26 लाख रुपये वार्षिक बांध दी गई।

इस संधि के बारे में इतिहासकार गुलाम हुसैन ने कहा, ”इस संधि की शर्तों को तय करने में उतना ही समय लगा, जितना एक गधे को खरीदने में।”

इलाहाबाद की संधि –

यह इलाहाबाद की दूसरी संधि थी। यह संधि क्लाइव और अवध के नबाव शुजा उद्दौला के बीच 16 अगस्त 1765 को हुई। कड़ा और इलाहाबाद को छोड़कर अवध का राज्य नबाव को बापस मिल गया। अवध ने अंग्रेजों को 50 लाख रुपये और चुनार का दुर्ग दे दिया। कंपनी को अवध में करमुक्त व्यापार करने की अनुमति प्राप्त हुई। नबाव के खर्जे पर एक ब्रिटिश सेना अवध में रखना तय हुआ। गाजीपुर और वाराणसी में बलवंत सिंह को अधिकार दिए गए। बलवंत सिंह अंग्रेजों के संरक्षण में कार्य करेगा। परंतु यह अवध के अधीन राजा माना जाएगा।

मद्रास की संधि –

4 अप्रैल 1769 ई. को हैदर अली अंग्रेजों के बीच मद्रास की संधि हुई। इस संधि की शर्तें हैदर अली के पक्ष में थीं। इसके बारे में अधिक जानकरी के लिए आंग्ल-मैसूर युद्ध वाली पोस्ट देखें। इतिहास की प्रमुख संधियाँ ।

बनारस की संधि –

बनारस की संधि वारेन हेंस्टिंग्स और अवध के नबाव शुजा उद्दौला के बीच 1773 ई. में हुई थी। हेंस्टिंग्स ने इलाहाबाद और कड़ा के जिले 50 लाख रुपये में नबाव को बेच दिए। नबाव ने कंपनी से रुहेलाओं के विरुद्ध सहातया का वचन लिया। इसके लिए नबाव कंपनी को 40 लाख रुपये देगा।

इसी से प्रभावित होकर नबाव ने 1774 ई. में रुहेलखंड पर आक्रमण कर दिया। अप्रैल 1774 ई. में मीसपुर कटरा के स्थान पर एक निर्णायक युद्ध में रुहेला सरदार हाफिज रहमत खाँ को मार डाला। रुहेलखंड को अवध में मिला लिया और 20 हजार रुहेलाओं को देश निकाला दिया।

सूरत की संधि –

इस संधि की कुल 16 शर्तें थीं। यह संधि रघुनाथराव और बम्बई सरकार के मध्य 7 मार्च 1775 को हुई थी। इसके बारे में अधिक जानकरी के लिए आंग्ल मराठा युद्ध वाली पोस्ट देखें।

फैजाबाद की संधि –

फैजाबाद की संधि अवध के नबाव आसफुद्दौला और वारेन हेंस्टिंग्स के बीच 1775 ई. में हुई। इस संधि के तहत बनारस पर अंग्रेजों की सत्ता को स्वीकार कर लिया गया। वारेन हेंस्टिंगस ने अवध की वेगमों की सम्पत्ति की सुरक्षा की गारंटी ली। हालांकि बाद में हेंस्टिंग्स ने इसके विपरीत कार्य किया। हेंस्टिंग्स ने 1781 ई. जॉन मिडल्टन को बेगमों से धन बसूलने का आदेश दे दिया। इंग्लैंड के बर्क ने हेंस्टिंग्स पर अभियोग चलाया उसका एक कारण अवध की बेगमों से बदसलूकी भी था।

पुरंदर की संधि –

वारेन हेंस्टिंग्स ने कर्नल अप्टन को पूना दरबार में भेजा और मराठों से पुरंदर की संधि की। इसके बारे में अधिक जानकारी के लिए आंग्ल मराठा युद्ध वाली पोस्ट देखें। यह संधि 1 मार्च 1776 को संपन् हुई।

बड़गाँव की संधि –

बड़गांव की संथि 1779 में संपन्न हुई। यह संधि अंग्रेजों के लिए बेहद अपमानजनक थी। इसके तहत 1773 ई. में बम्बई सरकार द्वारा जीती गई सारी भूमि लौटानी पड़ी। सिंधिया को भड़ौच के राजस्व का एक हिस्सा मिलेगा। बंगाल से पहुंचने वाली फौज को हटा लिया जाएगा।

सालबाई की संधि –

यह संधि सिंधिया की मध्यस्थता से अंग्रेज व मराठों के बीच 17 मार्च 1782 को संपन्न हुई। इसके बारे में अधिक जानकरी के लिए आंग्ल मराठा युद्ध वाली पोस्ट देखें।

मंगलौर की संधि –

मंगलौर की संधि टीपू सुल्तान और लार्ड मैकार्टनी के बीच मार्च 1784 में संपन्न हुई थी। इसके बारे में अधिक जानकरी के लिए आंग्ल-मैसूर युद्ध वाली पोस्ट देखें।

श्रीरंगपट्टम की संधि –

यह संधि 1792 में संपन्न हुई। इस संधि के तहत टीपू सुल्तान को अपना आधा राज्य गवाना पड़ा। इसके बारे में अधिक जानकरी के लिए आंग्ल मैसूर युद्ध वाली पोस्ट देखें।

बसीन की संधि –

बसीन की संधि अंग्रेजों और पेशवा बाजीराव द्वितीय के बीच हुई। इसके बारे में अधिक जानकारी के लिए आंग्ल मराठा युद्ध वाली पोस्ट देखें।

देवगाँव की संधि –

यह संधि अंग्रेजों और भोसले के बीच 17 दिसंबर 1803 ई. को हुई थी। इसके बारे में अधिक जानकरी के लिए आंग्ल मराठा युद्ध वाली पोस्ट देखें।

सुर्जी-अर्जनगाँव की संधि –

यह संधि अंग्रेजों और सिंधिया के बीच 30 दिसंबर 1803 ई. को हुई। इसके बारे में अधिक जानकरी के लिए आंग्ल मराठा युद्ध वाली पोस्ट देखें।

अमृतसर की संधि –

यह संधि 25 अप्रैल 1809 ई. को अंग्रेजों और रणजीत सिंह के बीच हुई थी। इस पर रणजीत सिंह और चार्ल्स मेटकॉफ के हस्ताक्षर हैं।

पूना की संधि –

एलफिंस्टन ने बाजीराव द्वितीय की मर्जी के बिना उससे इस संधि पर हस्ताक्षर करवा लिए। यह संधि 13 जून 1817 को संपन्न हुई। इसके बारे में अधिक जानकरी के लिए आंग्ल मराठा युद्ध वाली पोस्ट देखें।

ग्वालियर की संधि –

यह संधि दौलतराव सिंधिया और अंग्रेजों के बीच 5 नवंबर 1817 को हुई। इसके बारे में अधिक जानकारी के लिए आंग्ल मराठा युद्ध वाली पोस्ट देखें।

मंदसौर की संधि –

यह संधि होल्कर और अंग्रेजों के बीच 6 जनवरी 1818 को हुई। इस संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए होल्कर को विवश किया गया। इसके बारे में अधिक जानकारी के लिए आंग्ल मराठा युद्ध वाली पोस्ट देखें।

लाहौर की संधि –

लाहौर की संधि 9 मार्च 1846 ई. को सिखों व अंग्रेजों के बीच हुई।

इतिहास की प्रमुख संधियाँ ।

कर्नाटक युद्ध

भारत में हुए कर्नाटक युद्ध आस्ट्रिया के उत्तराधिकार युद्ध का विस्तार मात्र थे। ये युद्ध अंग्रेज और फ्रांसीसियों के बीच प्रभुसत्ता की लड़ाई के लिए हुए। इस क्रम में कुल तीन कर्नाटक युद्ध 17 वर्षों तक चले। कर्नाटक युद्ध की शुरुवात 1746 ई. में हुई और इनका अंत 1763 ई. में पेरिस की संधि से हुआ। इसी के साथ भारत में फ्रांसीसियों पर अंग्रेजों की सर्वोच्चता भी साबित हो गई।

  • कर्नाटक का प्रथम युद्ध (1746-48 ई.)
  • कर्नाटक का द्वितीय युद्ध (1749-54 ई.)
  • तृतीय कर्नाटक युद्ध (1756-63 ई.)

कर्नाटक का प्रथम युद्ध (1746-48 ई.)

इस युद्ध की पहल अंग्रेजों की तरफ से हुई। दोनों ही यूरोपीय शक्तियों ने अपनी गृह सरकारों से अनुमति लिए बिना यह युद्ध छेड़ दिया। ब्रिटेश नौसेना ने बारनैट के नेतृत्व में कुछ फ्रांसीसी जहाज पकड़ लिए। डूप्ले ने कर्नाटक के नबाव से अपने जहाजों की सुरक्षा मांगी। परंतु अंग्रेजों ने उनकी बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया। अब डूप्ले ने मॉरीशस के फ्रांसीसी गवर्नर ‘ला बूर्डोने’ से सहायता मांगी। ला बूर्डोने 3000 सैनिक ले कर कोरोमंडल तट पहुंचा। इसने मद्रास पर अधिकार कर लिया। अंग्रेजों से 40 हजार पौण्ड की राशि लेकर इसने उन्हें मद्रास बापस कर दिया। लेकिन डूप्ले ने नगर दोबारा जीत लिया। अब अंग्रेजों ने नबाव से सहातया माँगी। नबाव ने फ्रांसीसियों से घेराबंदी हटा लेने को कहा। अब डूप्ले ने कूटनीति का सहारा लिया। डूप्ले ने नबाव से कहा कि वह मद्रास से अंग्रेजों को हटाकर उसे नबाव को सौंप देगा।

सेंट थोमे की लड़ाई (1748 ई.) –

कर्नाटक के युद्ध की यह पहली लड़ाई थी। यह लड़ाई फ्रांसीसियों और कर्नाटक के नबाव अनवरुद्दीन के बीच लड़ी गयी। इसमें फ्रांसीसी सेना का नेतृत्व कैप्टन पैराडाइज ने और नबाव की सेना का नेतृत्व महफूज खाँ ने किया। इस लड़ाई मे छोटी सी फ्रांसीसी सेना ने नबाव की बड़ी सेना को हरा दिया।

ए ला शापेल की संधि (1748 ई.) –

‘ए ला शापेल’ की संधि से आस्ट्रिया का उत्तराधिकार युद्ध समाप्त हो गया। इसी के साथ भारत में प्रथम कर्नाटक युद्ध की भी समाप्ति हो गई। इस संधि के तहत मद्रास(भारत) अंग्रेजों को लुईवर्ग(अमेरिका) फ्रांसीसियों को मिल गया।

कर्नाटक का द्वितीय युद्ध (1749-54 ई.)

हैदराबाद के निजामुलमुल्क की 1748 ई. में  हुई मृत्यु के बाद उत्तराधिकार की समस्या खड़ी हो गई। निजाम का पुत्र नासिरजंग उत्तराधिकारी बना। परंतु उसके भांजे मुजफ्फर जंग ने इसके दावे को चुनौती दी। इसी समय मराठों द्वारा चन्दा साहब को रिहा कर दिया गया। तो कर्नाटक के नबाव अनवरुद्दीन और उसके बहनोई चन्दा साहेब में विवाद हो गया। फ्रांसीसी गवर्नर डूप्ले ने इस राजनीतिक स्थित का लाभ उठाना चाहा। अतः उसने मुजफ्फरजंग को हैदराबाद का निजाम बनाने के लिए सैन्य सहायता देने की बात कही। साथ ही चन्दा साहेब को कर्नाटक का नबाव बनाने के लिए सैन्य सहातया का वचन दिया।

अम्बूर का युद्ध (1749 ई.) –

डूप्ले, मुजफ्फरजंग, और चन्दा साहब की संयुक्त सेनाओं ने कर्नाटक पर आक्रमण कर दिया। इस अम्बूर की लड़ाई में कर्नाटक के नबाव अनवरुद्दीन की पराजय के साथ मृत्यु हो गई। अनवरुद्दीन के उत्तराधिकारी पुत्र मुहम्मद अली ने भागकर त्रिचनापल्ली के दुर्ग में शरण ली। कर्नाटक का बाकी हिस्सा चन्दा साहब के अधिकार में आ गया। चन्दा साहब ने अर्काट को अपनी राजधानी बनाकर शासन करना प्रारंभ कर दिया। इसने फ्रांसीसियों को पांडिचेरी के निकट 80 ग्रामों का अनुदान दे दिया। फ्रांसीसियों ने चन्दा साहब को त्रिचिनापल्ली पर घेरा डालने की सलाह दी। इसी समय अंग्रेजों ने हैदराबाद के दूसरे दाबेदार नासिरजंग का पक्ष लिया। बाद में तिरुचिनापल्ली का घेरा हटाकर आते वक्त चन्दा साहेब की तंजौर के राजा ने हत्या कर दी। अब अंग्रेजों का साथी मुहम्मद अली कर्नाटक का नबाव बन गया। इसी समय फ्रांसीसी सरकार ने डूप्ले को बापस बुला लिया। इसकी जगह गोडेहू को पांडिचेरी का गवर्नर नियुक्त कर भेजा गया। गोडेहू ने अंग्रेजों से पांडिचेरी की संधि कर ली।

अब नासिरजंग ने अंग्रेजों की सहायता से दिसंबर 1750 ई. में कर्नाटक पर आक्रमण किया। जिंजी नदी के तट पर नासिरजंग और अंग्रेजों की संयुक्त सेना ने चन्दा साहब, मुजफ्फरजंग और डूप्ले की संयुक्त सेनाओं को परास्त कर दिया। इसी समय हैदराबाद की सेना ने नासिरजंग के खिलाफ विद्रोह कर दिया। इसमें नासिरजंग मारा गया। डूप्ले ने तुरंत मुजफ्फरजंग को हैदराबाद का निजाम बना दिया। इसके बदले मुजफ्फरजंग ने फ्रांसीसी कंपनी को 50 लाख रुपये और सैनिकों को 5 लाख रुपये दिये। डूप्ले को भी 20 लाख रुपये और 1 लाख रुपये वार्षिक आय वाली जागीर मिली। फ्रांसीसी अधिकारी बुस्सी जब मुजफ्फरजंग को अपनी संरक्षता में पांडिचेरी से ले जा रहा था। उसी वक्त रास्ते में पठानों ने मुजफ्फरजंग की हत्या कर दी। स्थिति खराब होने से पहले ही फ्रांसीसी बुस्सी ने निजाम के दूसरे बेटे सलावतजंग को निजाम बना दिया।

पाण्डिचेरी की संधि (1755 ई.) –

इस संधि के तहत अंग्रेजों और फ्रांसीसियों ने भारतीय नरेशों के आपसी झगड़ों में हस्तक्षेप न करने का निर्णय किया। इसी उद्देश्य से उन्होंने भारतीय शासकों द्वारा दी गई उपाधियों को त्यागने का निर्णय किया। दोनों कंपनियों को अपने अपने क्षेत्र बापस प्राप्त हो गए। इस संधि के बारे में डूप्ले ने कहा, ” गोडेहू ने अपने देश और विनाश पर हस्ताक्षर किए हैं। ”

परंतु यह संधि भी स्थाई शांति कायम न कर सकी। 1756 ई. में जब यूरोप में सप्तवर्षीय युद्ध प्रारंभ हुआ तो यहाँ ये दोनों फिर एक दूसरे के विरोध में आ गए।

कर्नाटक का तृतीय युद्ध (1756-63 ई.)

1757 ई. में फिर फ्रांसीसियों और अंग्रेजों ने एक दूसरे के क्षेत्रों पर आक्रमण करना प्रारंभ कर दिया। फ्रांसीसियों ने त्रिचनापल्ली पर अधिकार करने का असफल प्रयास किया। कर्नाटक के अधिकांश भागों पर उनका अधिकार हो गया। 1757 ई. में ही अंग्रेजों ने कासिम बाजार, चंद्रनगर, बालासोर, व पटना की फ्रांसीसी फैक्ट्रियों पर अधिकार कर लिया।

काउंट डी लाली –

इस युद्ध की वास्तविक शुरुवात तब हुई जब फ्रांसीसी सरकार ने काउंट डी लाली को भारत में सभी फ्रांसीसी क्षेत्रों का प्रमुख नियुक्त किया। फ्रांसीसी सरकार ने इसे भारत में फ्रांसीसी क्षेत्रों संबंधी समस्त सैन्य व असैन्य अधिकार देकर भेजा। इसने 1758 ई. में फोर्ट सेंट डेविड जीत लिया। मद्रास का घेरा डाला। परंतु अंग्रेजी नौसेना के आने के बाद इसे ये घेरा हटाना पड़ा।

वाण्डिवाश का युद्ध (22 जनवरी 1760 ई.) –

यह अंग्रेजों व फ्रांसीसियों में सम्प्रभुता की निर्णायक लड़ाई थी। इसमें अग्रेजी सेना का नेतृत्व सर आयरकूट ने किया। फ्रांसीसी सेना का नेतृत्व काउंड डी लाली कर रहा था। इस युद्ध में अंग्रेजों की जीत हुई। 1761 ई. में अंग्रेजों ने पांडिचेरी को भी अपने कब्जे में ले लिया। अगले एक वर्ष में ही फ्रांसीसियों ने अपने अधिकार के सारे क्षेत्र खो दिए। इस युद्ध का अंत पेरिस की संधि से हुआ।

पेरिस की संधि (1763 ई.) –

पेरिस की संधि पर हस्ताक्षर होने के बाद यूरोप का सप्तवर्षीय युद्ध समाप्त हो गया। फ्रांसीसियों को भारत स्थित उनके सभी कारखाने बापस कर दिए गए। परंतु अब वे न तो इनकी किलेबंदी कर सकते हैं और न ही सेना रख सकते हैं। इसी के साथ फ्रांसीसियों का भारत में साम्राज्य निर्माण का सपना मिट्टी में मिल गया। फ्रांसीसी अब सिर्फ व्यापारी मात्र रह गए।

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