अलाउद्दीन खिलजी व खिलजी वंश

दिल्ली सल्तनत पर शासन करने वाला यह दूसरा राजवंश है। सल्तनत काल के पहले राजवंश गुलाम वंश के पतन के बाद खिलजी वंश का उदय हुआ। इस वंश के शासकों ने दिल्ली सल्तनत पर 1290 ई. से 1320 तक शासन किया। ‘दिल्ली सल्तनत’ के अंतर्गत गुलाम वंश, खिलजी वंश, तुगलक वंश, सैय्यद वंश, व लोदी वंश का इतिहास आता है। इस लेख में अलाउद्दीन खिलजी व खिलजी वंश की जानकारी दी गई है। खिलजी वंश की स्थापना जलालुद्दीन खिलजी ने की थी।

खिलजी –

खिलजी प्रदेश अफगानिस्तान में हेलमन्द नदी घाटी में बसा हुआ था। वहाँ के निवासियों को खिलजी कहा जाता था। मूल तुर्कों से पृथक ये तुर्कों की ही एक शाखा थे। इन्होंने प्रशासन में तुर्कों के एकाधिकार को समाप्त कर दिया। इन्होंने तुर्कों की नस्लवादी नीति के विरुद्ध भारतीय मुसलमानों को भी बड़े पद दिये। इन्होंने कुलीनता के स्थान पर प्रतिभा को महत्व दिया। खिलजी भी भारत में गोरी के साथ ही आए थे। 1191 ई. में तराइन की पहली लड़ाई में गोरी घायल हो गया था। तब उसे युद्ध भूमि से एक खिलजी अधिकारी ने ही निकाला था। खिलजी वंश के किसी भी शासक ने खलीफा से पद की वैधता प्राप्त करने का प्रयास नहीं किया।

जलालुद्दीन खिलजी (1290-96 ई.)

जलालुद्दीन खिलजी 1290 ई. में 70 वर्ष की अवस्था (सर्वाधिक वृद्ध सुल्तान) में सल्तनत का शासक बना। इसका राज्याभिषेक कैकुबाद द्वारा निर्मित किलोखरी महल में कराया। परंतु इसने बलबन के सिंहासन पर बैठने से मना कर दिया। इसने मंगोलों के विरुद्ध कई सफल लड़ाइयां लड़ी थीं। कैकुबाद ने इसे आरिज ए मुमालिक का पद दिया। बाद में तीन माह तक क्यूमर्स का संरक्षक व वजीर भी रहा। प्रारंभ में दिल्ली की जनता के बीच यह इतना लोकप्रिय न हुआ। इसलिए इसने किलोखरी को ही अपनी प्रारंभिक राजधानी बनाया। एक साल बाद कोतवाल फखरुद्दीन और दिल्ली की जनता के आमंत्रित करने पर दिल्ली पहुँचा।

अन्य अधिकारी –

इसने ख्वाजा खातीर को वजीर नियुक्त किया। अपने छोटे भाई युग्नुसखा को आरिज ए मुमालिक के पद पर नियुक्त किया।

अहमद चप को अमीर ए हाजिब का पद प्रदान किया।

जलालुद्दीन खिलजी के अभियान –
  • 1290 ई. में हम्मीरदेव के रणथम्भौर किले पर आक्रमण किया। इसने झैन का किला जीत लिया, परंतु रणथम्भौर का किला नहीं जीत सका।
  • 1292 ई. में राजपूतों से मंडौर का दुर्ग जीता।
  • इसी साल हलाकू (मंगोल) के पौत्र अब्दुल्ला ने पंजाब पर आक्रमण किया।
मंगोलपुरी –

इसी के शासनकाल में चंगेज खाँ के एक वंशज उलूग ने 4000 मंगोलों के साथ इस्लाम स्वीकार कर लिया। जलालुद्दीन ने इन्हें दिल्ली में बसा लिया। इस स्थान को मंगोलपुरी के नाम से जाना जाता है।

अलाउद्दीन के अभियान –

1292 ई. में कड़ा व मानिकपुर के इक्तेदार अलाउद्दीन खिलजी ने भिलसा (मालवा क्षेत्र) की लूट की। जलालुद्दीन ने इससे खुश होकर अवध की भी इक्तेदारी अलाउद्दीन को दे दी। इसी समय अलाउद्दीन को अर्ज-ए-मुमालिक का पद दिया। इसके बाद अलाउद्दीन ने सुल्तान जलालुद्दीन से चन्देरी पर आक्रमण करने की अनुमति मांगी। परंतु वह देवगिरि पर आक्रमण करने चला गया। देवगिरि की लूट से उसे अपार सम्पदा प्राप्त हुई। सुल्तान को ग्वालियर में देवगिरि लूट की सूचना प्राप्त हुई। अलाउद्दीन ने सुल्तान से मिलने के लिए निवेदन किया। सुल्तान के अमीर-ए-हाजिब अहमद चप ने अलाउद्दीन से भेंट न करने की सलाह दी। परंतु जलालुद्दीन ने इस पर ध्यान नहीं दिया।

जलालुद्दीन की मृत्यु –

जुलाई 1296 ई में जलालुद्दीन कड़ा-मानिकपुर में गंगा नदी के तट पर अलाउद्दीन से मिला। यहीं पर सलीम ने सुल्तान पर हमला कर दिया। इख्तियारुद्दीन हुद ने जलालुद्दीन का सर काट दिया। मलिक फखरुद्दीन के अतिरिक्त सुल्तान के सभी सहयोगियों को भी मार दिया गया। यहीं पर अलाउद्दीन ने स्वयं को सुल्तान घोषित कर लिया।

इब्राहिम रुकनुद्दीन (1296 ई.)

यह जलालुद्दीन का पुत्र था। कड़ा-मानिकपुर में जलालुद्दीन की मृत्यु की सूचना उसकी पत्नी को दिल्ली में प्राप्त हुई। तो उसकी पत्नी मलिका-ए-जहाँ ने अपने पुत्र रुकनुद्दीन को दिल्ली के तख्त पर बिठा दिया। कड़ा मानिकपुर से बापस आने पर अलाउद्दीन ने इसे तखत से हटा दिया और स्वयं सुल्तान बन गया।

अलाउद्दीन खिलजी (1296-1316 ई.)

इसके बचपन का नाम अलीगुर्शप था। बरनी के अनुसार यह पूर्णतः अशिक्षित था। यह जलालुद्दीन खिलजी का भतीजा व दामाद था। इसने कई वर्षों तक बलबन की सेवा की थी। जलालुद्दीन के समय मलिक छज्जू के विद्रोह का दमन किया। भारतीय इतिहास में इसे मुख्यतः इसके बाजार प्रबंधन व्यवस्था के लिए जाना जाता है।

अलाउद्दीन खिलजी का राज्याभिषेक –

अक्टूबर 1296 ई. में यह दिल्ली सल्तनत का शासक बना। इसने बलबन के लालमहल में अपना राज्याभिषेक कराया। इसने सिकंदर द्वितीय की उपाधि धारण की। इसके सिक्कों व सार्वजनिक प्रार्थनाओं में यही उपाधि मिलती है। लेनपूल ने इसकी विजयों के कारण इसे सल्तनत का समुद्रगुप्त कहा है। सर्वप्रथम अलाउद्दीन खिलजी ने ही भारतीय मुसलमानों को प्रशासन से जोड़ा।

पारिवारिक जीवन –

इसका पारिवारिक जीवन कलहपूर्ण था। ये अपनी पत्नी और सास (मलिका ए जहाँ) के दुर्व्यवहार से दुखी था। ये पत्नी व सास जलालुद्दीन की पुत्री व पत्नी थीं। अलाउद्दीन ने अपने ससुर जलालुद्दीन की हत्या कर शासन हड़प लिया था। इसी वजह से ये दोनों इससे घृणा करने लगी थीं।

अलाउद्दीन के चार खान –
  • सुल्तना बनने के बाद अलाउद्दीन ने संजर को अलप खाँ की उपाधि दी।
  • अलमास वेग को उलूग खां की उपाधि दी।
  • नसरत जलेसरी को नसरत खाँ की उपाधि दी।
  • यूसुफ खां को जफर खां की उपाधि दी। बरनी ने इसे युग का रुस्तम कहा।
विद्रोह –

इसके शासनकाल में कुछ विद्रोह भी हुए। सबसे पहला विद्रोह 1299 ई. में नवीन मुसलमानों (मंगोलों) ने किया। यह विद्रोह गुजरात की लूट में मिले धन को लेकर था। नसरत खाँ ने इस विद्रोह को दबा दिया। फिर भी अलाउद्दीन ने मंगोलों के साथ-साथ उनके बीबी-बच्चों को भी कठोर सजा दी। दूसरा विद्रोह अलाउद्दीन के भतीजे अकत खाँ ने किया। रणथम्भौर अभियान के दौरान इसने धोखे से अलाउद्दीन पर हमला कर दिया। अलाउद्दीन को मरा हुआ समझकर छोड़ दिया और स्वयं को सुल्तान घोषित कर लिया। दिल्ली में हरम के प्रभारी मलिक दीनार ने इसकी हत्या कर दी। इसके बाद बदायूं के इक्तेदार उमर और अवध के इक्तेदार मंगू खाँ ने विद्रोह किया। इसके बाद हाजी मौला ने विद्रोह किया।

मंगोल आक्रमण

सल्तनत काल में सर्वाधिक मंगोल आक्रमण अलाउद्दीन के ही शासनकाल में हुए। इसके समय में करीब 6 मंगोल आक्रमण हुए। इसने मंगोलों के विरुद्ध रक्त व युद्ध की नीति अपनाई।

कादर खाँ –

अलाउद्दीन के समय मंगोलों का पहला हमला 1298 ई. में कादर खाँ के नेतृत्व में हुआ। इसे जफर खां व उलूग खां ने हरा दिया।

सल्दी खाँ –

मंगोलों का दूसरा हमला सल्दी के नेतृत्व में हुआ। इसे जफर खाँ ने हराकर बंदी बना लिया। सल्दी खां को बंदी बनाकर दिल्ली लाया गया।

कुतलुग खाँ –

इसके बाद कुतलुग ख्वाजा के नेतृत्व में मंगोल आक्रमण हुआ। यहीं ‘कीली के मैदान’ में जफर खाँ ने कुतलुग को द्वंद युद्ध की चुनौती दी। इसमें अलाउद्दीन ने जफर खाँ को अकेला छोंड़ दिया। ‘जफर खाँ मारा गया’ उसके बाद अलाउद्दीन ने कुलतुग को हरा दिया।

तार्गी –

1203 ई. में तार्गी ने दिल्ली पर आक्रमण किया। अभी अलाउद्दीन चित्तौड़ (खिज्राबाद) विजय करके लौटा था। अतः ये युद्ध करने की स्थिति में नहीं था। इसने सीरी के किले में शरण ली। यहाँ यह दो माह तक मंगोलों से घिरा रहा। अंत में मंगोल बापस चले गए। इसके बाद अलाउद्दीन ने सीरी को सल्तनत की नई राजधानी के रूप में विकसित किया। दिल्ली के चारो ओर रक्षात्मक दीवार बनवाई।

सीमा रक्षक के पद का सृजन किया। इस पद पर पहली नियुक्ति गाजी मलिक(गियासुद्दीन तुगलक) की हुई। 1305 ई. में इसे पंजाब का सूबेदार नियुक्त किया गया। ये हर साल मंगोल क्षेत्रों पर आक्रमण कर उनमें अपना डर बनाए रखता था।

अलीबेग व तातार्क –

मंगोलों को अगला हमला अलीबेग व तातार्क के नेतृत्व में हुआ। एक हिंदू अधिकारी मलिक नायक ने इनको पराजित कर दिया। इसको पकड़कर दिल्ली लाया गया और सीरी की दीवार में जिंदी चुनवा दिया गया।

कबक, इकबालमंद, व तईबू –

इन्होंने 1306 ई. में भारत पर आक्रमण किये। इन्हें गाजी मलिक और मलिक काफूर ने हरा दिया। इसके बाद मंगोल सिंधु नदी पार करने का साहस नहीं जुटा सके। अब दिल्ली सल्तनत की सीमा व्यास नदी व लाहौर से बढ़कर सिंधु नदी तक पहुंच गई।

बाजार व्यवस्था

जियाउद्दीन बरनी की ‘तारीख ए फिरोजशाही‘ से अलाउद्दीन की बाजार व्यवस्था की जानकारी प्राप्त होती है। भारतीय इतिहास में अलाउद्दी खिलजी को इसकी उन्नत बाजार व्यवस्था के प्रबंधन के लिए जाना जाता है। भारत में ‘सार्वजनिक वितरण प्रणाली‘ की शुरुवात अलाउद्दीन ने ही की। 1303 ई. की चित्तौड़ विजय के बाद अलाउद्दीन ने अपनी बाजार व्यवस्था लागू की। अलाउद्दीन ने बाजार (सराय ए अदल) का तीन भाग में वर्गीकरण किया। पहला अनाज मंडी, दूसरा कीमती कपड़े, तीसरा गुलाम व मवेशियों हेतु। एक बाजार का प्रमुख शहना कहलाता था।

इन तीनों शहनाओं का प्रमुख शहना ए मंडी कहलाता था। अलाउद्दीन ने पहला शहना ए मंडी मलिक कबूल को नियुक्त किया। शहना ए मंडी के कार्यालय में सभी व्यापारियों को पंजीकरण कराना होता था। ये सरकारी धन से सहायता प्राप्त बाजार थे। शहना ए मंडी न्यायिक कार्य भी करता था। दीवान ए रियासत बाजार व्यवस्था का सर्वोच्च अधिकारी था। मलिक याकूब को पहला दीवान ए रियासत नियुक्त किया गया। अलाउद्दीन की बाजार व्यवस्था की सफलता का श्रेय इसी को जाता है। व्यापारियों का लाइसेंस जानी करने का कार्य परवाना नवीस करता था। माल की जमाखोरी पर भी प्रतिबंध लगाया गया। खालसा भूमि का सर्वाधिक विस्तार अलाउद्दीन के ही काल में हुआ।

अलाउद्दीन के सैन्य अभियान

अलाउद्दीन एक साम्राज्यवादी सुल्तान था। उसने अपने शासनकाल में बहुत से सैन्य अभियान किए। इसकी साम्राज्यवादी नीतियों के आधार पर ही लेनपूल ने इसे ‘सल्तनत का समुद्रगुप्त’ कहा है। विंध्याचल पर्वत को पार कर दक्षिण जाने वाला पहला सुल्तान अलाउद्दीन ही था।

  • गुजरात अभियान (1297-98 ई.)
  • रणथम्भौर अभियान (1301 ई.)
  • चित्तौड़ अभियान (1303 ई.)
  • मालवा अभियान (1305 ई.)
  • देवगिरि अभियान (1307 ई.)
  • सिवान अभियान (1308 ई.)
  • वारंगल अभियान (1309 ई.)
  • होयसल अभियान (1310 ई.)
  • पाण्ड्य अभियान (1311 ई.)
गुजरात अभियान –

1297-98 ई. में अलाउद्दीन ने उलूग खाँ व नसरत खाँ के नेतृत्व में गुजरात अभियान दल भेजा। इसी समय इन्होंने जैसलमेर जीता और सोमनाथ के मंदिर को दोबारा लूटा। गुजरात का शासक कर्णदेव था। इसकी पत्नी कमलादेवी को दिल्ली लाया गया। कर्णदेव अपनी पुत्री देवलदेवी के साथ दक्षिण में देवगिरि भाग गया। गुजरात से नसरत खाँ 1000 दीनार में (हजार दीनारी) मलिक काफूर को खरीदकर दिल्ली लाया।

रणथम्भौर अभियान –

अलाउद्दीन ने रणथम्भौर अभियान 1301 ईं में उलूग खाँ व नरसत खाँ के नेतृत्व में किया। इसी दौरान नसरत खाँ की मृत्यु हो गई। तब अलाउद्दीन अमीर खुसरो के साथ रणथम्भौर आया। यहाँ के शासक हम्मीरदेव ने मंगोल केहब को शरण दे रखी थी। इसमें हम्मीरदेव मारा गया, स्त्रियों ने जौहर कर लिया। अमीर खुसरो की तारीख ए अलाई फारसी में जौहर का पहला प्रमाण प्रस्तुत करती है।

चित्तौण अभियान –

यहाँ का शासक रतनसिंह था। जायसी कृत पद्मावती की नायिका पद्मिनी इसी की पत्नी थी। इस अभियान में रतनसिंह अपने दो सेनापतियों गोरा और बादल के साथ मारा गया। रानी पद्मिनी ने जौहर कर लिया। हालांकि अमीर खुसरो इस जौहर का उल्लेख नहीं करता है। अलाउद्दीन ने चित्तौण का नाम बदलकर खिज्राबाद कर दिया। यहीं पर अपने पुत्र खिज्र खां को चित्तौण का शासक और अपना उत्तराधिकारी घोषित किया।

सिवाना विजय –

यहाँ का शासक शीतलदेव था। यह मारवाड़ क्षेत्र का सबसे शक्तिशाली दुर्ग था।

अलाउद्दीन खिलजी का दक्षिण अभियान

1303 ई. में अलाउद्दीन ने तेलंगाना पर भी आक्रमण करवाया था। इसमें काकतीय नरेश प्रतापरुद्रदेव ने इसे हरा दिया था। इसके बाद इसने अपना दक्षिण अभियान 1307 ई. में प्रारंभ किया। इसके लिए अलाउद्दीन ने मलिक काफूर (एक हिजड़ा) को प्रमुख नियुक्त किया। साथ ही ख्वाजा हाजी को इसका सहयोगी नियुक्त किया। अमीर खुसरो भी काफूर के साथ दक्षिण गए।

देवगिर पर आक्रमण –

1303 ई. में मलिक काफूर ने देवगिरि के शासक रामचंद्र देव पर आक्रमण किया।

  • कर्णदेव की पुत्री देवलदेवी को पकड़कर दिल्ली लाया गया।
  • देवलदेवी का विवाह खिज्र खाँ से करा दिया गया।
  • खिज्र खां व देवलदेवी की प्रेमकथा का वर्णन अमीर खुसरो की आशिकी में वर्णित है।
  • नवसारी जिले को छोड़कर सभी राज्य राजा रामचंद्र को बापस कर दिया गया।
  • मलिक काफूर ने दक्षिण में देवगिरि को अपना मुख्यालय बनाया।
  • मलिक काफूर ने देवगिरि पर 1312-13 ई. में पुनः आक्रमण किया।
  • यहाँ के सिंहनदेव को मार कर हरपालदेव को शासक बनाया।
वारंगल अभियान –
  • दक्षिण में तेलंगाना की राजधानी वारंगल थी इसका शासक प्रतापरुद्रदेव काकतीय वंश का था।
  • 1309 ई. में मलिक काफूर ने इस पर आक्रमण किया।
  • प्रताप रुद्रदेव ने अपनी सोने की मूर्ति बनवाई और उसमें कोहिनूर की माला डालकर मलिक काफूर को दे दी।
  • कोहिनूर का पहला साक्ष्य यहीं से मिलता है।
  • काफूर ने यह हीरा अलाउद्दीन को, अलाउद्दीन ने मुबारक खिलजी को दे दिया।
  • यहाँ से प्राप्त भारी सम्पदा के साथ काफूर दिल्ली लौटा।
होयसल अभियान –
  • वर्तमान मैसूर को मध्यकाल में होयसल के नाम से जाना जाता था।
  • इसकी राजधानी द्वारसमुद्र (वर्तमान हवेलिड) थी।
  • 1310 ई. में मलिक काफूर ने होयसल पर आक्रमण किया।
  • यहाँ का शासक वीर बल्लाल तृतीय था, इसने आत्मसमर्पण कर दिया।
पाण्ड्य राज्य पर आक्रमण –
  • अलाउद्दीन ने पाण्ड्य अभियान उस वक्त किया। जब हाल ही में यहाँ के शासक मारवर्मन कुलशेखर की मृत्यु हुई थी।
  • इस समय इसके दो पुत्रों सुंदर पाण्ड्य और वीर पाण्ड्य में सिंहासन को लेकर संघर्ष चल रहा था।
  • सुंदर पाण्ड्य ने काफूर से सहायता मांगी। 1311 ई. में काफूर ने हमला किया।
  • इसमें वीर पाण्ड्य भाग निकला।
  • आर्थिक रूप से यह काफूर का सबसे सफल आक्रमण था।
अलाउद्दीन के कार्य –
  • इसने दान दी गई भूमि, उपहार, पेंशन, इनाम इत्यादि को छीन लिया।
  • नवीन करों चरी (चराई कर), घरी (गृहकर) व करी को लागू किया।
  • गुप्तचर व्यवस्था सुदृढ़ की। बरीद (जासूसों का प्रमुख) की नियुक्ति की।
  • इसने स्वयं शराब त्याग दी और शराब, भांग, जुंआ इत्यादि पर प्रतिबंध लगा दिया।
  • लगान बसूली में व्याप्त दोषों को दूर करने के उद्देश्य से ‘दीवान ए मुस्तखराज’ की स्थापना की।
  • कर की नगद अदायगी अनिवार्य की।
  • जैन कवि रामचंद्र सूरी को सम्मानित किया।
  • ग्रामीण प्रशासन में सीधा हस्तक्षेप किया।
  • इसने वैश्यावृत्ति रोकने का प्रयास किया। ऐसा करने वाला यह पहला सुल्तान था।
  • घोड़ों को दागने व सैनिकों का हुलिया लिखाने की शुरुवात सर्वप्रथम अलाउद्दीन ने ही की।

अलाउद्दीन की मृत्यु –

1316 ई. में इसकी मृत्यु जलोदर रोग से हो गई।

इसे दिल्ली की जामा मस्जिद के सामने एक कब्रगाह में दफनाया गया।

जोधपुर संस्कृत शिलालेख –

इसमें वर्णित है कि ”अलाउद्दीन के देवतुल्य शौर्य से पृथ्वी अत्याचारों से मुक्त हो गई।”

शिहाबुद्दीन उमर (1316 ई.)

अपनी मृत्यु से पूर्व अलाउद्दीन ने अपने इस पुत्र को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था। अलाउद्दीन की मृत्यु के बाद 6 वर्षीय शिहाबुद्दीन शासक बना। मलिक काफूर इसका संरक्षक बना। काफूर ने शिहाबुद्दीन की माँ झल्लपाली से विवाह कर लिया। इसके बाद काफूर ने अलाउद्दीन के दो पुत्रों खिज्रखाँ व सादीखाँ को ग्वालियर के किले में अँधा बनवा दिया। इसके बाद काफूर ने मुबारक खिलजी को मारने की योजना बनाई। परंतु मुबारक खिलजी ने मलिक काफूर की ही हत्या करवा दी। इसके बाद मुबारक खिलजी स्वयं शिहाबुद्दीन का संरक्षक बन गया। इसके बाद इसने शिहाबुद्दीन को अंधा बना दिया और स्वयं शासक बन गया।

मुबारकशाह (1316-20 ई.)

इसने खुद को खलीफा घोषित किया। स्वयं को खलीफा घोषित करने वाला यह दिल्ली का एकमात्र सुल्तान था। इसने उदारता के साथ शासन प्रारंभ किया। जिस दिन शासक बना उसी दिन बहुत से कैदियों को मुक्त किया। इसने अलाउद्दीन के सभी भूमि व बाजार संबंधी नियमों को समाप्त कर दिया। इसका निजामुद्दीन औलिया से संघर्ष हो गया।

देवगिरि पर आक्रमण –

1318 ई. में देवगिरि के शासक हरपालदेव ने स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। असदुद्दीन को दिल्ली का प्रभारी बनाकर मुबाकरशाह खुशरोखां के साथ देवगिरि पर आक्रमण करने गया। इसने हरपालदेव को मारकर मलिक यकलखी को यहां का प्रांतपति नियुक्त किया। मुबारकशाह ने दिल्ली बापस आकर खुशरोखाँ को दक्षिण विजय के लिए भेज दिया। खुशरो ने वारंगल (तेलंगाना) अभियान किया। इसके बाद इसने माबर प्रदेश लूटा। बाद में खुसरवाशाह ने मुबारकशाह की हत्या कर दी और खुद शासक बन गया।

नासिरुद्दीन खुसरो (1320 ई.)

मुबारकशाह की हत्या कर खुशरो मलिक अब नासिरुद्दीन खुशरवशाह के नाम से शासक बना। यह गुजरात का रहने वाला हिंदू धर्म से परिवर्तित मुसलमान था। जिसे मुबारशाह ने खुसरो खां की उपाधि देकर अपना प्रधानमंत्री बनाया था। इसने खिज्रखाँ की विधवा देवलदेवी से विवाह कर लिया। इसने निजामुद्दीन औलिया को 5 लाख टंका व उपहार भेजे। इसके बदले औलिया ने खुसरो की सत्ता को स्वीकार कर लिया।

गुलाम वंश या मामलूक वंश

मध्यकालीन भारत में 1206 ई. से 1526 ई. तक शासन करने वाले 5 वंशों को दिल्ली सल्तनत कहा जाता है। ‘दिल्ली सल्तनत’ के अंतर्गत गुलाम वंश, खिलजी वंश, तुगलक वंश, सैय्यद वंश, लोदी वंश का इतिहास आता है। इस लेख में गुलाम वंशकी जानकारी दी गई है।

गुलाम वंश या मामलूक वंश

दिल्ली सल्तनत पर 1206 ई. से 1290 ई. तक जिस वंश ने शासन किया उसे मामलूक या गुलाम वंश कहा जाता है। इसके अंतर्गत कुल तीन राजवंश कुत्बी वंश, शम्शी वंश, व बलबनी वंश आते हैं। हालांकि गुलाम वंश के सभी शासक गुलाम नहीं थे।

गुलाम वंश के शासक

मामलूक वंश या गुलाम वंश के शासक निम्मलिखित हैं –

  • कुतुबुद्दीन ऐबक
  • आरामशाह
  • इल्तुतमिश
  • रुकनुद्दीन फिरोज
  • रजिया सुल्तान
  • बहरामशाह
  • अलाउद्दीन मसूदशाह
  • नासिरुद्दीन समूदशाह
  • बलबन
  • कैकुबाद
  • क्यूमर्स

कुतुबुद्दीन ऐबक (1206-10 ई.)

मुहम्मद गोरी का दास कुतुबुद्दीन ऐबक एक तुर्क था। इसके माता पिता ने बचपन में ही इसे निशापुर के काजी अब्दुलअजीज कोकी को बेच दिया था। काजी की मृत्यु के बाद उनके पुत्रों ने इसे गोरी को बेच दिया। गोरी ने इसे अमीर ए आखूर के पद पर तैनात किया। गोरी ने इसे लाखबख्श, हातिम द्वितीय व सिपहसालार कहा। यह गुलाम वंश का पहला शासक बना।

सत्ता के लिए ऐबक का संघर्ष –

गोरी के कोई पुत्र न था। उसकी मृत्यु के बाद उसके तीन गुलाम ऐबक, नासिरुद्दीन कुबाचा, ताजुद्दीन यल्दौज उसके उत्तराधिकार के लिए प्रतिद्वंदी बने। कुबाचा को सिंध प्रांत और यल्दौज को गजनी का क्षेत्र मिला। ऐबक ने लाहौर को अपनी राजधानी बनाया और वहीं से शासन करता रहा। शासक बनने के बाद ऐबक से अपनी बहन का विवाह कुबाचा से कर दिया। इससे कुबाचा का विरोध शांत हो गया। परंतु यल्दौज का खतरा बना रहा। जब ख्वारिज्म के सुल्तान ने गजनी पर हमला कर दिया तो यल्दौज भागकर पंजाब आ गया। यहाँ पर ऐबक ने इसे हरा दिया। इस समय गजनी का सिंहासन खाली था। गजनी की जनता ने ऐबक को आमंत्रित किया परंतु 40 दिन बाद ही वहाँ विद्रोह हो गया। अतः ऐबक बापस लाहौर आ गया। यल्दौज पुनः गजनी का शासक बन गया।

शासनकाल –

इसने अपने काल में न तो खुतबा पढ़वाया, न सिक्के जारी किए और न ही सुल्तान की उपाधि धारण की। 1209 ई. में गौर प्रदेश के सुल्तान महमूद से ऐबक ने दासतामुक्ति पत्र प्राप्त किया। महमूद ने हसन निजामी के हाथों एक छत्र प्रतीक स्वरूप भेजा।

ऐबक की उपलब्धियां व प्रमुख व्यक्ति –

ऐबक ने ही दिल्ली में कुतुबमीनार बनवाना प्रारंभ किया। दिल्ली में ‘कुव्वत उल इस्लाम मस्जिद’ का निर्माण कराया। अजमेर में ढाई दिन का झोपड़ा नामक मस्जिद बनवाई। ताजुल मासिर का लेखक हसन निजामी ऐबक के ही दरबार में रहता था। फख्र-ए-मुदब्बिर भी ऐबक के ही दरबार में रहता था। फख्र-ए-मुदब्बिर ही ऐबक का पहला वजीर भी था।

मृत्यु –

1210 ई. में चौगान (हार्स पोलो) खेलते वक्त घोड़े से गिरने के कारण ऐबक की मृत्यु हो गई।

इसे लाहौर में दफनाया गया।

आरामशाह (1210 ई.)

ऐबक की मृत्यु के बाद आरामशाह शासक बना। कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह ऐबक का पुत्र था।

परंतु ऐबक के दरबारी लेखक के अनुसार ऐबक की सिर्फ तीन पुत्रियां ही थीं।

वहीं मुगल कालीन आइने अकबरी का लेखक अबुल फजल इसे ऐबक का भाई बताता है।

यह सिर्फ 8 माह ही शासन कर सका।

इसके बाद कुबाचा ने लाहौर पर अधिकार कर लिया।

इल्तुतमिश (1210-36 ई.)

इल्तुतमिश दिल्ली का पहला सुल्तान था। इसने अपनी पुत्री रजिया को…Read more

रुकनुद्दीन फिरोज (1236 ई.)

इल्तुतमिश के अपने पुत्री को उत्तराधिकारी घोषित करने के वाबजूद तुर्की अमीरों ने उसे शासिका स्वीकार नहीं किया। इल्तुतमिश का पुत्र रुकनिद्दीन फिरोज अगला शासक बना। इसके शासनकाल में सत्ता की प्रमुख इसकी माता शाहतुर्कान बनीं। उसी के षणयंत्रों के फलस्वरूप रुकनुद्दीन को सत्ता प्राप्त हुई थी। इसके समय गयासुद्दीन मुहम्मदशाह ने अवध में विद्रोह कर दिया। इसके अतिरिक्त लाहौर व मुल्तान के इक्तादारों ने भी विद्रोह कर दिया। वजीर जुनैदी ने भी विद्रोहियों का साथ दिया। फिरोज विद्रोह को दबाने कुहराम गया। यहाँ पर इसे बंदी बना लिया गया।

रजिया द्वारा न्याय की मांग –

इसी समय रजिया जुमा (शुक्रवार) की नमाज के दौरान लाल वस्त्रों में जनता के बीच उपस्थित हुई। अपने पिता की अंतिम इच्छा (रजिया को सुल्तान बनाए जाने की) याद दिलाई। लाल वस्त्र न्याय की मांग के प्रतीक थे। अतः दिल्ली की जनता ने रजिया को सुल्तान मानकर तख्त पर बिठा दिया। इस समय सिर्फ वजीर जुनैदी ने ही रजिया के सिंहासनारोहण का विरोध किया।

रजिया सुल्तान (1236-40 ई.)

सुल्तान बनने के बाद रजिया ने ख्वाजा मुहाजबुद्दीन को सल्तनत का वजीर नियुक्त किया। यह दिल्ली सल्तनत की प्रथम महिला शासिका बनीं। रजिया ने स्त्री के वस्त्र त्याग दिए और पुरुषों के वस्त्र धारण करने लगी। इसकी माँ का नाम कुतुब बेगम (तुर्कमान खातून) था। इससे पहले ग्वालियर अभियान के दौरान इल्तुतमिश ने रजिया को दिल्ली का प्रभारी नियुक्त किया था। अभियान से बापस आकर उसने रजिया को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। साथ ही सिक्कों पर उसका नाम अंकित करवाया।

रजिया का शासन –

रजिया के शासनकाल में किरामातियों व अहमदियों ने तुर्क नूरुद्दीन के नेतृत्व में विद्रोह किया। 1238 ई. में गजनी और बामियान ने रजिया से मंगोलों के विरुद्ध सहायता मांगी। रजिया ने बरन की आय देने का वादा किया परंतु सैन्य सहायता देने से इनकार कर दिया। इस तरह इसने मंगलों के आक्रमण की संभावना को समाप्त कर दिया। सत्ता में तुर्की अमीरों के एकाधिकार को समाप्त करने के लिए रजिया ने जमालुद्दीन याकूत को अमीर ए आखूर नियुक्त किया। यह एक अबीसीनियाई हब्सी था। रजिया के समय ही इल्तुतमिश द्वारा गठित चालीसा दल में संघर्ष की शुरुवात हो गई।

विरोधी व षणयंत्रकारी –

तुर्की अमीर दिल्ली में रजिया को सत्ता से बेदखल नहीं कर सकते थे। क्योंकि रजिया को दिल्ली की जनता का समर्थन प्राप्त था। इसलिए उन्होंने इसे दिल्ली से बाहर निकालने का षणयंत्र रचा। रजिया के विरुद्ध षणयंत्रकारियों में सबसे प्रमुख था इख्तियारुद्दीन ऐतगीन। इसे रजिया ने अमीर-ए-हाजिब का पद दिया था। इसके अतिरिक्त भटिंडा का गवर्नर अल्तूनिया दूसरा प्रमुख विरोधी था। पहला विद्रोह लाहौर के इक्तादार कबीर खाँ ने किया। इसके बाद अल्तूनिया ने विद्रोह किया। रजिया विद्रोह को दबाने गई। अल्तूनिया ने याकूब को मार दिया और रजिया को तबरहिंद के किले में कैद कर लिया।

इधर दिल्ली में तख्त को खाली पाकर बहरामशाह को गद्दी पर बिठा दिया। इसकी खबर मिलते ही रजिया ने अल्तूनिया से विवाह कर लिया। अब रजिया व अल्तूनिया की संयुक्त सेना ने दिल्ली की संगठित सेना से युद्ध किया। इसमें रजिया को हार का सामना करना पड़ा। अक्टूबर 1240 ई. में कैथल के निकट डाकुओं ने रजिया व अल्तूनिया की हत्या कर दी।

रजिया के पतन का कारण –
  • यद्यपि रजिया में एक योग्य शासिका के समस्त गुण विद्यमान थे।
  • परंतु उसका स्त्री होना उन सभी गुणों पर भारी पड़ गया।
  • तुर्की अमीरों को एक स्त्री द्वारा शासित होना शर्मनाक महसूस होता था।
  • यही कारण था कि वे इसे सत्ता से बेदखल करने की सदैव लालसा रखते थे।
  • इसके लिए वे षणयंत्र करते रहते थे।

मुईजुद्दीन बहरामशाह (1240-42 ई.)

जब अल्तूनिया ने रजिया को तबरहिंद के किले में कैद कर लिया। उसी वक्त दिल्ली का सिंहासन खाली पाकर अमीरों ने बहरामशाह को गद्दी पर बिठा दिया। इसने ‘नायब-ए-ममलिकात’ के नए पद का सृजन किया। इस पद पर सबसे पहले इख्तियारुद्दीन ऐतगीन को नियुक्त किया। बाद में ऐतगीन की बढ़ती शक्ति देख बहरामशाह ने इसकी हत्या करवा दी। परंतु फिर भी सारी शक्ति इसे प्राप्त न हो सकी। बाद में वजीर मुहाजबुद्दीन ने बहरामशाह की हत्या करवा दी।

अलाउद्दीन मसूदशाह (1242-46 ई.)

यह इल्तुतमिश के पुत्र फिरोजशाह का पुत्र था। इसने मुहाजबुद्दीन को हटाकर अबूबक्र को सल्तनत का वजीर नियुक्त किया। इसी के सिक्कों पर सर्वप्रथम बगदाद के अंतिम अब्बासी खलीफा अल मुस्तसीम का नाम खुदा। इसने नायब का पद कुतुबुद्दीन हसन को दिया। इसी समय बलबन को अमीर ए हाजिब का पद प्राप्त हुआ। यहीं से बलबन ने शक्ति अर्जित करना प्रारंभ किया। इस समय बलबन ने अफवाह उड़ा दी कि मंगोलों व राजपूतों का दिल्ली पर हमला होने वाला है। सबका ध्यान इस ओर भटकाकर उसने नासिरुद्दीन महमूद व उसकी माँ के साथ मिलकर मसूदशाह को गद्दी से हटाने का षणयंत्र किया। मसूदशाह को सत्ता से बेदखल कर जेल में डाल दिया। जेल में ही मसूदशाह की मृत्यु हो गई।

नासिरुद्दीन महमूद (1246-65 ई.)

अब अमीरों ने इल्तुतमिश के 17 वर्षीय पौत्र नासिरुद्दीन महमूद को गद्दी पर बिठाया। यह शम्सी वंश का अंतिम सुल्तान था। मिनहाज उस सिराज की ‘तबकात ए नासिरी’ उसके इसी आश्रयदाता को समर्पित है। 1249 ई. में बलबन ने अपनी पुत्री हुजैदा का विवाह नासिरुद्दीन से कर दिया। नासिरुद्दीन ने बलबन को नायब का पद दिया। मंगोल आक्रमण को विफल करने के लिए बलबन को उलूग की उपाधि दी। इसी के शासनकाल में मंगोल हलाकू के दूत 1260 ई. में दिल्ली आए। 1253 ई. में मिन्हाज उस सिराज को मुख्य काजी के पद से हटा दिया गया। इसके स्थान पर शमसुद्दीन को मुख्य काजी नियुक्त किया गया। 1265 ई. में नासिरुद्दीन की मृत्यु हो गई। यह दिल्ली सल्तनत का एकमात्र सुल्तान था जिसकी सिर्फ एक पत्नी थी। इसे दिल्ली का आदर्श सुल्तान कहा जाता है।

नोट – इल्तुतमिश के पुत्र का नाम नासिरुद्दीन महमूद था। परंतु उसकी मृत्यु 1229 ई. में ही हो गई। नासिरुद्दीन की मृत्यु के बाद उसका पुत्र पैदा हुआ। इल्तुतमिश ने इसका नाम अपने उसी पुत्र के नाम पर नासिरुद्दीन महमूद रख दिया। अर्थात इल्तुतमिश के पुत्र व पौत्र दोनों का ही नाम नासिरुद्दीन महमूद था।

बलबन (1266-87 ई.)

बलबन और उसके छोटे भाई किश्लू खाँ को बचपन में ही मंगोल पकड़कर ले गए थे। मंगोलों ने इन्हें दास बनाकर जलालुद्दीन बसरे के हाथ बेच दिया। इल्तुतमिश ने ग्वालियर विजय के बाद इसे दिल्ली के बाजार से खरीदा। तभी ये दोनों भाई पुनः मिल गए।

विभिन्न पदों पर बलबन की नियुक्ति –

बलबन ने कुल सात पदों पर कार्य करते हुए सुल्तान का पद प्राप्त किया। बरनी इसके बारे में कहता है, ‘वह मलिक से खान और खान से सुल्तान हो गया।’

  • इल्तुतमिश ने इसे चेहलगानी दल का सदस्य बनाया। फिर इसे खासतार (अंगरक्षकों का प्रधान) नियुक्त किया।
  • रजिया ने इसे अमीर-ए-शिकार पद पर नियुक्त किया।
  • बहरामशाह ने इसे अमीर-ए-आखूर (घुड़साला का प्रमुख) नियुक्त किया।
  • मसूदशाह ने इसे अमीर-ए-हाजिब बनाया।
  • नासिरुद्दीन महमूद ने इसे नायब के पद पर नियुक्त किया।

बलबन का राज्यारोहण –

1266 ई. में बलबन गियासुद्दीन की उपाधि के साथ शासक बना। शासक बनने के बाद भी इसे तमाम समस्याओं का सामना करना पड़ा। इनमें प्रमुख थे चालीसा दल के अमीर और विद्रोही। विद्रोहियों के प्रति बलबन ने रक्त व युद्ध की नीति अपनाई। मेव जनजाति के लोगों का दिल्ली के दोआब क्षेत्र में भयंकर आतंक फैला हुआ था। सबसे पहले बलबन ने मेवों का दमन किया। फिर अवध के विद्रोह को दबाया। इसने स्वयं को नैयबते खुदाईजिल्ल-ए-इलाही कहा। दिल्ली के चारो कोनों में चार किले बनवाए। इन पर अफगान अधिकारियों की नियुक्ति की। बलबन का काल शासन सुदृढ़ीकरण का था, साम्राज्य विस्तार का नहीं। इसने खुद को ‘फिरदौसी की रचना शाहनामा‘ के नायक अफरासियाब का वंशज बताया।

बलबन के कार्य –

  • ईरानी परंपरा सिजदा व पैबोस (पैर चूमना) की शुरुवात की। ईरानी त्योहार नौरोज की शुरुवात की।
  • बलबन ने ही सबसे पहले सैन्य विभाग (दीवान-ए-अर्ज) का गठन किया।
  • इमादुलमुल्क रावत को पहला दीवान ए अर्ज नियुक्त किया गया।
  • 1279 ई. में शिक(जिला) का विकास किया। इस पर शिकदार की नियुक्ति की।
  • बलबन ने सभी इक्ताओं में बरीद(गुप्तचर) की नियुक्ति की।
  • इसने स्वयं शराब त्याग दी और सामाजिक सभाओं में नृत्य, संगीत व मद्यपान पर प्रतिबंध लगा दिया।
  • दरबार में हंसी-मजाक बंद कर दिया।
  • रक्त की शुद्धता व कुल की उच्चता पर बल दिया।

बंगाल की समस्या –

1254 ई. में ही अर्सला खाँ के नेतृत्व में बंगाल ने स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी। सुल्तान बनने के बाद बलबन ने अपने गुलाम तुगरिल खां को दक्षिण बंगाल के अपने अधिकार वाले क्षेत्र का इक्तादार बनाया। 1279 ई. में तुगरिल खाँ ने भी विद्रोह कर दिया। यह दास का मालिक से विद्रोह करने का पहला साक्ष्य है। बलबन ने अवध के इक्तादार अमीन खाँ को विद्रोह का दमन करने के लिए भेजा। अमीन खाँ इसमें असफल रहा। तो बलबन ने अमीन खाँ को मरवा कर अयोध्या के द्वार पर लटकवा दिया। इसके बाद अल्पतगीन मुएदराज को बंगाल भेजा। यह भी असफल रहा। तो बलबन ने इसे दिल्ली के द्वार पर फाँसी पर लटकवा दिया।

इसके बाद बलबन अपने पुत्र को साथ लेकर स्वयं बंगाल अभियान पे गया। दिल्ली का अधिभार वह अपने कोतवाल फखरुद्दीन को सौंप गया। बलबन के आने की खबर पाते ही तुगरिल ओडिशा के जंगलों में जा छिपा। बलबन के सैनिकों ने उसे खोजकर मार डाला। बलबन ने पुत्र बुगराखाँ को बंगाल का सूबेदार नियुक्त कर दिया।

मंगोल समस्या –

बलबन ने उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत की किलेबंदी की। ऐसा करने वाला यह दिल्ली का पहला सुल्तान था। वहाँ पर पहले अपने चचेरे भाई शेर खाँ को नियुक्त किया। बलबन का ज्येष्ठ पुत्र मुहम्मद खाँ 1286 ई. में मंगोलों (तमर खाँ) से लड़ते हुए मारा गया। अमीर खुशरो ने शहजादा मुहम्मद के ही संरक्षण में अपने साहित्यिक जीवन की शुरुवात की थी।

चालीसा दल का दमन

बनबन ने सबसे पहले चालीसा दल का दमन किया। क्योंकि बलबन स्वयं पहले चालीसा दल का सदस्य था। वह तुर्क चेहलगानी के अमीरों की चालों व षणयंत्रों से भलीभांति परिचित था। क्योंकि यह दल इनता अधिक शक्तिशाली हो चुका था कि सुल्तानों पर नियंत्रण रखने लगा था। इल्तुतमिश के बाद 30 वर्षों में इस दल ने उसी के वंश के 5 शासकों को बनाया और बर्वाद किया। इसके सदस्य बलबन को भी कभी भी चुनौती दे सकते थे। बलबन को लगा कि चालीसा दल के अंत के बिना सत्ता की समस्त शक्तियाँ प्राप्त करना असंभव है। बलबन ने इसके सदस्यों को एक-एक कर मरवा दिया। तुगरिल खाँ, खेरखाँ, मलिक बकबक, हैबत खाँ, अमीन खाँ चालीसा दल के कुछ प्रमुख सदस्य थे।

जागीरदारी व्यवस्था –

सैनिकों को उनकी सैन्य सेवा के बदले जागीरें दे दी जाती थीं। ये जागीरें उनके बाद भी इनके वंशजों के पास रहती थीं। इससे बलबन को राजस्व घाटा होने लगा। अतः उसने इन्हें बापस लेने की घोषणा कर दी। इनसे प्रभावित वृद्ध व विधवाएं दिल्ली सड़कों पर उतर आए। बलबन ने अपने मित्र व दिल्ली के कोतवाल की सलाह पर इस योजना को बापस ले लिया। बलबन के काल की यहीं एकमात्र नीति असफल रही। 

बलबन की मृत्यु –

1286 ई. में पुत्र मुहम्मद की मृत्यु के एक वर्ष बाद 1287 ई. में पुत्र वियोग में बलबन की भी मृत्यु हो गई। बरनी कहता है, ”इसकी मृत्यु पर लोगों ने अपने वस्त्र फाड़ दिए और 40 दिन तक शोक मनाया।”

बलबन के बाद –

  • बलबन अपने बाद अपने दूसरे पूत्र बुगरा खाँ को शासक बनाना चाहता था।
  • परंतु वह बंगाल से न आ सका।
  • तो बलबन ने अपने पुत्र मुहम्मद के पुत्र कैखुसरो को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।
  • परंतु बलबन की मृत्यु के बाद दादबेग निजामुद्दीन ने कैखुशरो को शासक नहीं बनने दिया।
  • उसने बुगरा खाँ के पुत्र कैकुबाद द्वारा कैखुशरो की हत्या करवा दी।
  • इस तरह बलबन के बाद कैकुबाद शासक और निजामुद्दीन उसका नायब बना।

कैकुबाद (1287-90 ई.)

कैकुबाद बलबन का पौत्र था। ये बलबन के बाद दिल्ली सल्तनत का अगला सुल्तान बना। निजामुद्दीन इसका नायब बना। पिता के जीवित रहते पुत्र का शासक बनने का यह पहला उदाहरण है। राज्यारोहण के दो साल बाद 1289 ई. में बुगरा खाँ अपने पुत्र से मिलने आया। इसका उल्लेख अमीर खुसरो ने अपनी रचना ‘किरान उस सादेन’ में किया है। जब पिता बुगरा खाँ ने अपने सुल्तान बेटे को सिजदा व पैबोस किया। तो कैकुबाद अत्यंत लज्जित हुआ और पिता के चरणों में गिर गया। बुगरा खां ने कैकुबाद को अपने नायब से सावधान रहने को कहा। कैकुबाद दिल्ली आया और अपने नायब निजामुद्दीन को मार डाला। परंतु कुछ समय बाद कैकुबाद लकवाग्रस्त हो गया। फिरोज खिलजी के समर्थक तरकेश ने 1290 ई. में कैकुबाद को चादर में लपेटकर यमुना में फेंक दिया।

क्यूमर्स (1290 ई.)

कैकुबाद के लकवाग्रस्त होने के बाद शासन चलाने के लिए ढाई वर्षीय बालक क्यूमर्स को शासक बनाया गया।

यह गुलाम वंश का अंतिम शासक था।

कैकुबाद ने फिरोज खिलजी नामक एक अहम अधिकारी को बरन क्षेत्र का राज्यपाल नियुक्त किया।

इसे आरिज ए मुमालिक का पद दिया।

आगे चलकर इसी फिरोज खिलजी ने जलालुद्दीन खिलजी के नाम से शासक बन खिलजी वंश की स्थापना की।

error: Content is protected !!