जन्तु विज्ञान (Zoology) :- संघ | वर्ग | कुल | सजीव | निर्जीव | जैव विविधता | वर्गीकरण | वर्गिकी | वायरस | द्विनाम पद्यति | मोनेरा | प्रोटिस्टा | कशेरुकी | अकशेरुकी | आनुवंशिकता | DNA | RNA | HIV | AIDS | जीन | ऊतक | कीट | मानव कार्यिकी | पाचन एवं अवशोषण | पाचन तंत्र | एन्जाइम्स | आहार नाल | प्रोटीन | कार्बोहाइड्रेट | वसा | पोषण | श्वसन | रुधिर की संरचना | रुधिर वर्ग | लसिका | परिसंचरण तंत्र | उत्सर्जी उत्पाद | परासरण | वृक्क के कार्य | डायलिसिस | न्यूऱन एवं तंत्रिकाएं | मानव तंत्रिका तंत्र | संवेदी अंग | अन्तःस्त्रावी ग्रंथियां | हाइपोथैलेमस | पीयूष ग्रंथि | थॉइराइड | एड्रीनल | अग्न्याशय | जनन तंत्र | वृषण व अण्डाशय | शुक्राणु | अण्डाणु | मासिक चक्र | निषेचन | परिवार नियोजन | गर्भ निरोध | वंशागति | जीन | क्रोमोसोम्स | गुणसूत्र | डाउन सिड्रोम | DNA फिंगर प्रिंटिंग | जीवन की उत्पत्ति, जैव विकास, चार्ल्स डार्विन, आनुवंशिक इंजीनियरिंग | इन्सुलिन | वैक्सीन | जैव सुरक्षा | पशुपालन | हॉटस्पॉट | संकटग्रस्त जीव | रेड डाटा बुक | जैव विविधता का संरक्षण | बायोस्फीयर रिजर्व।
विक्रतियां :- अस्थमा, अपच, कब्ज, पीलिया, उल्टी, हीमोफीलिया, वर्णान्धता.
जन्तु विज्ञान (Zoology) के अंतर्गत आने वाले शीर्षक :-
संघ –
विभिन्न संबंधित वर्गों के समूह को संघ (Phylum) कहा जाता है। जैसे उच्च संवर्ग कार्डेटा के अंतर्गत मत्स्य, पक्षी, सरीसृप,स्तनधारी व उभयचर आते हैं। इन सभी में कुछ न कुछ समान लक्षण पाए जाते हैं।
वर्ग –
अनेक संबंधित गणों के समूह को वर्ग की संज्ञा दी गई है। जैसे रोडेंशिया गण के अन्तर्गत कुतरने वाले जीवों को रखा गया है। गण सिटेसिया के अंतर्गत समुद्री स्तनधारी प्राणी आते हैं। गण काइरोप्टेरा उड़ने वाले स्तनधारियों का वर्ग है। गण कार्निवोरा के अंतर्गत शक्तिशाली मांसाहारी जीव आते हैं। बुद्धिमान स्तनधारियों के गण को प्राइमेट्स कहा जाता है। ये सभी गण स्तनी वर्ग के अंतर्गत आते हैं।
वंश –
संबंधित जातियों के संवर्ग को वंश कहा जाता है। जैसे- शेर, चीता, बाघ सभी अलग-अलग जातियां हैं। परंतु ये सभी एक ही वंश पैन्थेरा के हैं। अर्थात् शेर, बाघ, चीता के पूर्वज एक ही थे। उसी तरह कुत्ता, भेड़िया, स्यार सभी अलग जाति के हैं। परंतु इन सबका एक ही वंश है, इनके भी पूर्वज एक ही रहे होंगे।
सजीव जगत की विविधता
- सजीव क्या है ?
- जीवों में विविधता की संकल्पना
जीवधारियों का वर्गीकरण
- वर्गीकरण की आवश्यकता क्यों पड़ी ?
- जीवन के 5 जगत
- जीवन के 5 जगतों के वर्गीकरण का आधार
- वायरस एवं वायराइड्स
वर्गीकरण विज्ञान एवं द्विनाम पद्यति
- वर्गीकरण एवं वर्गीकरण विज्ञान
- जातियों की संकल्पना व वर्गिकीय क्रमबद्धता
- जीवों के नामकरण की द्विनाम पद्यति
- मोनेरा का वर्गीकरण
- जगत प्रोटिस्टा
- जन्तुओं के प्रमुख लक्षण व वर्गीकरण
जंतुओं का संरचनात्मक संगठन
- जन्तु ऊतक
- कीट का अध्ययन
पाचन एवं अवशोषण
- मानव आहार नाल एवं पाचक ग्रंथियां
- पाचक एन्जाइम्स एवं आहार नाल की श्लेष्मिका द्वारा स्त्रावित हार्मोन्स
- क्रमाकुंचन
- प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा का पाचन, अवशोषण व कैलोरी महत्व
- बहिःक्षेपण
- पोषण एवं पाचनतंत्र की विकृतियां
सांस लेना एवं श्वसन
- जन्तुओं में श्वसनांग
- मानव का श्वसनतंत्र
- मानव में सांस लेने की प्रक्रिया एंव इसका नियंत्रण
- मानव में गैसों का आदान प्रदान, गैसों का परिवहन एवं श्वसन का नियंत्रण
- श्वसनीय आयातन
- श्वसन से संबंधित विकृतियां
परिसंचरण एवं देह तरल
- रुधिर की संरचना, रुधिर वर्ग, रुधिर का जमना
- लसिका की संरचना एवं कार्य
- मानव परिसंचरण तंत्र
- मनुष्य के हृदय की संरचना एवं रुधिर वाहिकाएं
- दोहरा परिसंचरण
- हृदय की गतिविधियों पर नियंत्रण
- परिसंचरण तंत्र की विकृतियां
उत्सर्जी उत्पाद एवं निष्कासन
- उत्सर्जन की विधियां
- मानव उत्सर्जी तंत्र की संरचना और कार्य
- मूत्र निर्माण, परासरण नियंत्रण
- वृक्क के कार्य का नियंत्रण
- उत्सर्जन में अन्य अंगों का महत्व
- डायलिसिस एवं कृत्रि वृक्क
प्रचलन एवं गति
- गति के प्रकार – पक्ष्माभि, कशाभि, पेशीय
- कंकाल पेशी – संकुचनशील प्रोटीन एवं पेशी संकुचन
- कंकाल तंत्र एवं इसके कार्य
- संधियां
- पेशी एवं कंकाल तंत्र की विकृतियाँ
तंत्रिकीय नियंत्रण एवं समन्वय
- न्यूरॉन एवं तंत्रिकाएं
- मानव का तंत्रिका तंत्र
- केंद्रीय तंत्रिका तंत्र, परिधीय तंत्रिका तंत्र, विसरल तंत्रिका तंत्र।
- तंत्रिकीय प्रेरणाओं का उत्पादन एवं संवहन।
- प्रतिवर्ती क्रिया
- संवेदी अंग
- संवेदी अनुभव
- आँख एवं कान की प्रारंभिक संरचना एवं अन्य संवेदी अंगों का सामान्य ज्ञान।
रासायनिक समन्वय एवं नियंत्रण
- अन्तःस्त्रावी ग्रंथियाँ एवं हार्मोन्स।
- मानव अन्तःस्त्रावी तंत्र – हाइपोथैलेमस, पीयूष, पीनियल, थाइरॉइड, पैराथाइराइड, एड्रीनल, अग्न्याशय, जनद।
- हार्मोंस की क्रियाविधि।
- दूतवाहक एवं नियंत्रक के रूप में हार्मोंस का कार्य।
- अल्प एवं अतिक्रियाशील एवं संबंधित सामान्य रोग
मानव जनन
- नर एव मादा जनन तंत्र।
- वृषण एवं अण्डाशय की सूक्ष्मदर्शीय शरीर रचना।
- युग्मकजनन – शक्राणुजनन एवं अण्डजनन।
- मासिक चक्र।
- निषेचन, अन्तर्रोपण, भ्रूणीय परिवर्धन
- सगर्भता एवं प्लैसेंटा निर्माण
- प्रसव एंव दुग्ध स्त्रवण
जनन स्वास्थ्य
- आवश्यकता व यौन संचरित रोगों की रोकथाम।
- परिवार नियोजन – आवश्यकता एवं विधियां।
- गर्भ निरोध एवं चिकित्सकीय सगर्भता समापन।
- Amniocentesis
- बन्ध्यता एवं सहायक जनन प्रौद्योगिकियाँ।
आनुवांशिकी व विकास
- वंशागति व विभिन्नताएं।
- मेण्डेलीय वंशागति।
- मेण्डेलीय अनुपात से विचलन।
- बहुजीनी वंशागति का प्रारंभिक ज्ञान।
- वंशागति का क्रोमोसोमवाद।
- क्रोमोसोम्स व जीन।
लिंग निर्धारण
- मनुष्य, पक्षी व मधुमक्खी।
सहलग्नता और जीन विनिमय
- लिंग – सहलग्न वंशागित – हीमोफीलिया, वर्णांधता।
मनुष्य में मेन्डेलियन व्यतिक्रम
- मनुष्य में गुणसूत्रीय व्यतिक्रम
- डाउल सिड्रोम, टर्नर व क्लाइनफैल्टर सिन्ड्रोम
आनुवांशिक पदार्थ के लिए खोज एवं DNA एक आनुवांशिकी पदार्थ
- DNA व RNA की संरचना।
- DNA पैकेजिंग।
- अनुलेखन
- आनुवंशिक कोड
- अनुरूपण
- जीन अभिव्यक्ति एवं नियमन
- जीनोम और मानव जीनोम प्रोजेक्ट
- DNA फिंगर प्रिंटिंग
- विकास
- जीवन की उत्पत्ति
- जैव विकास एवं विकास के प्रमाण
- चार्ल्स डार्विन का योगदान, विकास का आधुनिक संश्लेषणात्मक सिद्धांत
- डार्डी-वीनबर्ग सिद्धांत
- विकास की क्रियाविधि
- जीन प्रवाह एवं आनुवंशिक अपवाह
- अनुकूली विकिरण
- मानव विकास।
जैव प्रौद्योगिकी :- सिद्धांत एवं अनुप्रयोग
- आनुवंशिक इंजीनियरिंग
- जैव प्रौद्योगिकी का स्वास्थ्य के क्षेत्र में अनुप्रयोग
- मानव इंसुलिन और वैक्सीन उत्पादन, जीव चिकित्सा।
- जैव सुरक्षा समस्याएं
- बायोपाइरेसी एवं पेटेंट
जीव विज्ञान एवं मानव कल्याण
- स्वास्थ्य एवं रोग।
- प्रतिरक्षा विज्ञान की मूलभूत संकल्पनाएं – टीके।
- रोगजनक, मानव में रोग उत्पन्न करने वाले परजीवी।
- कैंसर, HIV, और एड्स।
- यौनावस्था – नशीले पदार्थ और ऐल्कोहॉल का अतिप्रयोग।
मानव कल्याण में सूक्ष्म जीव
- घरेलू खाद्य उत्पादों में
- औद्योगिक उत्पाद
- वाहितम उपचार
- ऊर्जा उत्पादन
- जैव नियंत्रण कारक एवं जैव उर्वरक
जैव विविधता एवं संरक्षण
- खतरे एवं जैव विविधता संरक्षण की आवश्यकता
- हॉट स्पॉट, संकटग्रस्थ जीव, विलुप्ति, रैड डाटा बुक
- जैव विविधता का संरक्षण – बायोस्फीयर रिजर्व, नेशनल पार्क एवं सैंचुरीज।
प्राणी जगत के विभिन्न संघों के मूलभूत लक्षण
संघ | संगठन का स्तर | सममिति | सीलोम | खण्डी भवन | पाचनतंत्र | परिसंचरण | शवसनतंत्र | विशिष्ट लक्षण |
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कार्डेटा | अंगतंत्र | द्विपार्श्व | प्रगुहीय | उपस्थित | पूर्ण | उपस्थित | उपस्थित | पृष्ठ रज्जु, खोखली पृष्ठ तंत्रिका रज्जु, क्लोम दरारें, पाद अथवा पख। |
आर्थ्रोपोडा | अंगतंत्र | द्विपार्श्व | प्रगुहीय | उपस्थित | पूर्ण | उपस्थित | उपस्थित | काइटिन, खण्डों से बना बाह्य कंकाल, संधियुक्त उपांग, खुला रक्त परिसंचरण। |
मोलस्का | अंगतंत्र | द्विपार्श्व | प्रगुहीय | अनुपस्थित | पूर्ण | उपस्थित | उपस्थित | चलन मांसल पाद द्वारा, श्वसन क्लोमों द्वारा। |
पोरीफेरा | कोशिकीय | विभिन्न प्रकार की | अनुपस्थित | अनुपस्थित | अनुपस्थित | अनुपस्थित | अनुपस्थित | देहभित्ति छिद्रयुक्त, द्विस्तरीय नालतंत्र, कीप कोशिकाएं उपस्थित। |
सीलेन्ट्रेटा | ऊतक | अरीय | अनुपस्थित | अनुपस्थित | अपूर्ण | अनुपस्थित | अनुपस्थित | स्पर्शक, दंश कोशिकाएं, सीलेन्ट्रेटॉन उपस्थित। |
टीनीफोरा | ऊतक | अरीय | अनुपस्थित | अनुपस्थित | अपूर्ण | अनुपस्थित | अनुपस्थित | चलन कंकत पट्टिकाओं द्वारा। |
प्लेटीहेल्मिन्थीज | अंग तथा अंगतंत्र | द्विपार्श्व | अनुपस्थित | अनुपस्थित | अपूर्ण | अनुपस्थित | अनुपस्थित | चपटे परजीवी कृमि, चूषक उपस्थित, द्विलिंगी। |
ऐस्केल्मिन्थीज | अंगतंत्र | द्विपार्श्व | कूट प्रगुहीय | अनुपस्थित | पूर्ण | अनुपस्थित | अनुपस्थित | कृमि रूप, लम्बे एवं बेलनाकार प्रायः परजीवी, एकलिंगी। |
ऐनेलिडा | अंगतंत्र | द्विपार्श्व | प्रगुहीय | उपस्थित | पूर्ण | उपस्थित | उपस्थित | शरीर मेटामेरिक समखण्डों में बँटा हुआ, प्रचलन सीटी, चूषक या पार्श्वपाद द्वारा। |
इकाइनोडर्मेंटा | अंगतंत्र | अरीय | प्रगुहीय | अनुपस्थित | पूर्ण | उपस्थित | उपस्थित | चलन नालपादों द्वारा, जल संवहन तंत्र उपस्थित। |
हेमीकार्डेटा | अंगतंत्र | द्विपार्श्व | प्रगुहीय | अनुपस्थित | पूर्ण | उपस्थित | उपस्थित | कृमिरूप, शुंड, कॉलर तथा धड़ उपस्थित, ग्रसनीय क्लोम दरारें तथा पृष्ठ नालाकार तंत्रिका रज्जु उपस्थित। |
वर्गिकी तथा जंतु जगत का वर्गीकरण
समस्त जीवों को अरस्तू द्वारा दो समूहों ‘जन्तु समूह’ व ‘वनस्पति समूह’ में विभाजित किया गया है। ‘कैरोलस लीनियस‘ ने अपनी पुस्तक ‘Systema Naturae’ में जीवों को दो जगतों ‘पादप जगत’ व ‘जन्तु जगत’ में विभाजित किया। लीनियस द्वारा शुरु की गई वर्गिकी की प्रणाली से ही आधुनिक वर्गीकरण की नींव पड़ी। इसी कारण लीनियस को आधुनिक वर्गीकरण का पिता कहा जाता है। वर्गीकरण की आधारभूत इकाई जाति (Species) है।
जीवों का वर्गीकरण –
जीवों के परम्परागत द्विजगत वर्गीकरण के स्थान पर ह्विटकर की 1969 ई. में दी गई 5 जगत प्रणाली आ गई। इसके अनुसार जीवों को पांच जगतों में विभाजित किया गया –
- मोनेरा जगत (Monera)
- प्रोटिस्टा जगत (Protista)
- पादप जगत (Plantae)
- कवक (Fungi)
- जन्तु (Animal)
मोनेरा जगत
इसके अंतर्गत सभी प्रोकैरियोटिक कोशिका वाले जीव (सायनोबैक्टीरिया, जीवाणु, आर्की बैक्टीरिया) आते हैं।
ये सूक्ष्मदर्शी सामान्यतः एककोशिकीय संरचना वाले जीव होते हैं।
कुछ सदस्य बहुकोशिकीय होते हैं।
तन्तुमय जीवाणु भी इसी जगत के अंतर्गत आते हैं।
ये सामान्यतः अपघटक होते हैं। ये मृत कार्बनिक पदार्थों का अपघटन करके उनको सरल पोषक तत्वों में विघटित करते हैं। इसमें पदार्थों का पुनःचक्रीकरण होता है।
कोशिका के चारो ओर कोशिका भित्ति पायी जाती है।
इनमें संगठित केंद्रक का अभाव होता है। अर्थात इनमें केन्द्रक कला तथा केंद्रिका नहीं पायी जाती।
ये मुख्यतः परपोषी (परजीवी या मृतजीवी होते हैं)।
कुछ सदस्य स्वपोषी भी होते हैं, जो कि प्रकाश संश्लेषी या रसायन संश्लेषी होते हैं।
जीवाणु (Bacteria) –
बैक्टीरिया सर्वव्यापी होते हैं। ये समुद्र, मरुस्थल, बर्फ, गर्म जल के स्त्रोतों व विभिन्न प्रतिकूल वासस्थलों पर पाए जाते हैं। कुछ जीवाणु जैसे – गोलाणु, दण्डाणु, स्पाइरिलाई, पेरीट्रकाइकस, स्ट्रेप्टोबेसिलस परजीवी होते हैं। जीवाणुओं के कारण खाद्य विषाक्तता, विनाइट्रीकरण, मानव रोग, पादप रोग भी होते हैं।
ये अत्यंत सरल संरचना वाले प्रोकैरियोटिक एककोशिकीय जीव हैं।
ये सर्वव्यापी होते हैं और जल, थल व वायु हर जगह पाये जाते हैं।
बैक्टीरिया प्रायः परपोषी होते हैं। ये परजीवी, सहजीवी, व मृतजीवी होते हैं।
कुछ जीवाणु स्वपोषी होते हैं। इनमें कुछ प्रकाश संश्लेषी या प्रकाश संश्लेषी होते हैं। प्रकाश संश्लेषी बैक्टीरिया में बैक्टीरियोक्लोरोफिल वर्णक पाया जाता है।
कोशिका भित्ति म्यूकोपेप्टाइड से बनी होती है। इसमें सेलुलोज नहीं पाया जाता।
बहुत से जीवाणु जीवन की बहुत विषम परिस्थिति में भी जीवित रहते हैं।
संगठित केंद्रक का अभाव होता है। केन्द्रक कला व केंद्रिका का अभाव होता है।
कोशिका द्रव्य में DNA अणु पड़ा रहता है।
माइटोकाण्ड्रिया, अन्तःप्रद्रव्यी जालिका, गॉल्जीकाय, हरितलवक जैसे कोशिकांगों का अभाव होता है। माइटोकाण्ड्रिया का कार्य मीसोसोम्स करता है।
राइबोसोम्स 70S प्रकार के होते हैं।
इनमेंलैंगिक जनन आनुवंशिक पुनर्योजन द्वारा होता है।
परजीवी जीवाणुओं के कारण होने वाले मानव रोग –
मानवों में परजीवी जीवाणुओं के कारण अनेक रोग होते हैं। जैसे – हैजा, प्लेग, टिटनेस, क्षयरोग, कुष्ठरोग, सिफलिस, टाइफऑइड इत्यादि।
आकृति के आधार पर बैक्टीरिया कितने प्रकार के होते हैं ?
आकृति के आधार पर बैक्टीरिया 5 प्रकार के होते हैं –
- गोलाणु (Cocci) – ये गोलाकार व सबसे छोटे जीवाणु हैं। इसमें माइक्रोकोकाई, डिप्लोकोकाई, स्ट्रैप्टोकोकाई, टेट्राकोकाई, स्टैफाइलोकोकाई व सार्सीनी प्रकार के बैक्टीरिया आते हैं।
- दण्डाणु (Bacillus) – ये शलाका के समान होते हैं।
- कोमा बैक्टीरिया (Comma Bacteria) – कौमा (,) की आकृति के होने के कारण इन्हें ये नाम दिया गया। जैसे विब्रियो कोलेरी।
- सर्पिलाकृति (Spirilli) – ये लम्बे तथा सर्पिलाकार जीवाणु होते हैं। जैसे – स्पाइरिलम वाल्यूटेंस।
- एक्टिनोमाइसिटीज (Actinomycetes) – ये सूत्राकर व शाखामय होते हैं। जैसे – स्ट्रैप्टोमाइसीज।
सायनोबैक्टीरिया –
ये नीले हरे शैवाल (ब्लू ग्रील एल्गी) हैं। इनमें क्लोरोफिल-ए पाया जाता है। ये एककोशिकीय, स्वपोषी, तंतुरूपी अथवा क्लोनीय, जलीय अथवा स्थलीय शैवाल हैं। जन्तु विज्ञान ।
आद्य बैक्टीरिया (Archae Bacteria) –
ये बैक्टीरिया अत्यंत विषम परिस्थिति में पाए जाते हैं। मेथेनोजक बहुत से रूमिनेंट जानवरों की आंतों में पाए जाते हैं। ये गोबर से मेथेन (बायोगेस) का निर्माण करते हैं। जन्तु विज्ञान ।
प्रोटिस्टा जगत
प्रोटिस्टा जगत के अंतर्गत विविध प्रकार के एककोषिकीय, प्रायः जलीय यूकैरियोटिक जीव शामिल किये गए हैं। येग्लीना (पादप व जंतु के बीच की कड़ी) इसी के अंतर्गत आता है। यह दो तरह की जीवन पद्यति प्रदर्शित करता है। सूर्य के प्रकाश में स्वपोषित की भांति और इसके अभाव में इतर पोषी की। इसके अंतर्गत साधारणतः प्रोटोजोआ आते हैं। जन्तु विज्ञान ।
पादप जगत
सभी रंगीन, बहुकोशिकीय, प्रकाश-संश्लेषी उत्पादक जीव इस जगत के अंतर्गत आते हैं। मॉस, शैवाल, पुष्पीय व अपुष्पीय बीजीय पौधों को इस जगत के अंतर्गत रखा गया है। जन्तु विज्ञान ।
कवक
वे यूकैरियोटिक तथा परपोषित जीव, जिनमें अवशोषण द्वारा पोषण होता है। इस जगत के अंतर्गत रखे गए हैं। वे सभी इतरपोषी होते हैं। ये परजीवी या मृतोपजीवी होते हैं। इसकी कोशिका भित्ति काइटिन नामक जटिल शर्करा से निर्मित होती है। जन्तु विज्ञान ।
जन्तु जगत
सभी बहुकोशिकीय जन्तुसमभोजी यूकैरियोटिक, उपभोक्ता जीवों को इस जगत के अंतर्गत रखा गया है। इन्हें मेटाजोआ भी कहा जाता है। हाइड्रा, जेलीफिश, स्टारफिश, उभयचर, सरीसृप, कृमि, पक्षी व स्तनधारी जीव इसी जगत के अंतर्गत आते हैं। जन्तु विज्ञान ।
जीवों के नामकरण की द्विनाम पद्यति –
साल 1753 ई. में कैरोलस लीनियस (वर्गिकी के पिता) ने जीवों के नामकरण की द्विनाम पद्यति को प्रचलित किया। इस पद्यति के अनुसार हर जीवधारी का नाम लैटिन भाषा के दो शब्दों से मिलकर बना होता है। पहला शब्द उसके वंश के नाम का होता है। दूसरा शब्द उसकी जाति के नाम का होता है। वंश व जाति के नाम के बाद उस वर्गिकीविद् (वैज्ञानिक) का नाम लिखा जाता है। जिसने सबसे पहले उस जीव को खोजा या नाम दिया। जन्तु विज्ञान ।