कबीर के दोहे (Kabir ke Dohe) : दोहों का अपने शुद्ध रूप में होना अति आवश्यक है। आज इंटरनेट पर लोग इधर उधर से कॉपी-पेस्ट करके जानकारी डाल देते हैं। लेकिन हमने मानक पुस्तकों से ही ये दोहे उठाए हैं। इसलिए ये अपने शुद्ध व सटीक रूप में हैं –
कबीर के दोहे –
बुरा जो देखन मै चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपनो, मुझ-सा बुरा न कोय।।
दुर्बल को न सताइए, जाकी मोटी हाय।
मुई खाल की स्वाँस सो, सार भसम ह्वै-जाय।।
मधुर बचन है औषधी, कटुक बचन है तीर।
स्त्रवन द्वार ह्वै संचरे, सालै सकल सरीर।।
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।।
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय।।
जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं हम नाहिं।
प्रेम गली अति साँकरी, तामे दो न समाहिं।
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहि।
सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि।
यहु ऐसा संसार है, जैसा सैंबल फूल।
दिन दस के ब्यौहार कौं, झूठैं रंग न भूलि।।
सतगुर हम सूँ रीझि करि, एक कह्या प्रसंग।
बरस्या बादल प्रेम का, भीजि गया सब अंग।।
राम नाम के पटतरे, देबे कौं कछु नाहिं।
क्या ले गुर संतोषिए, हौंस रही मन माँहि।।
यह तन काचा कुंभ है, लियाँ फिरै था साथि।
ढबका लागा फुटि गया, कछू न आया हाथि।।
भगति भजन हरि नाँव है, दूजा दुक्ख अपार।
मनसा बाचा कर्मनाँ, कबिरा सुमिरण सार।।
कबिरा चित्त चमंकिया, चहुँ दिसि लागी लाइ।
हरि सुमिरण हाथूँ घड़ा, बेगे लेहु बुझाइ।।
इहि औसरि चेत्या नहीं, पसु ज्यूँ पाली देह।
राम नाम जाण्या नहीं, अंति पड़ी मुख षेह।।
ग्यान प्रकास्या गुर मिल्या, सो जिनि बीसरि जाइ।
जब गोबिंद कृपा करी, तब गुरु मिलिया आइ।।
कबिरा कहा गरबियौ, देहीं देखि सुरंग।
बीछड़ियाँ मिलिबौ नहीं, ज्यूँ काँचली भुजंग।।
अंषड़ियाँ झाईँ पड़ी, पंथ निहारि-निहारि।
जीभड़ियाँ छाला पड्या, राम पुकारि-पुकारि।
माया दीपक नर पतँग, भ्रमि भ्रमि इवैं पड़त।
कहै कबीर गुर ग्यान थैं, एक आध उबरंत।।
झूठे सुख को सुख कहैं, मानत हैं मन मोद।
जगत चबैना काल का, कछु मुख में कछु गोद।।
कबिरा कहा गरबियौ, ऊँचे देखि अवास।
काल्हि पर्यूँ भ्वैं लोटणाँ, ऊपरि जामै घास।।