इतिहास एक समग्र अध्ययन

भारत का संपूर्ण इतिहास ( History of India ) –

इस लेख में हड़प्पा सभ्यता से लेकर वर्तमान भारत तक के इतिहास की महत्वपूर्ण जानकारी है। इसके अंतर्गत  हड़प्पा सभ्यता, वैदिक संस्कृति, मौर्यकाल, गुप्तकाल, पूर्व मध्यकाल, मध्यकाल में सल्तनत काल, मुगल काल इसके बाद यूरोपीय कंपनियों का आगमन, स्वतंत्रता संग्राम, भारत की स्वतंत्रता, गणतंत्र भारत।

इतिहास

प्राचीन भारत का इतिहास

इसके अंतर्गत हम पाषाणकाल से लेकर राजपूत काल तक का इतिहास पढ़ते हैं। इसमें पाषाणकाल, सिंधु घाटी सभ्यता, वैदिक संस्कृति, धर्म सुधार आंदोलन, महाजनपद काल , सूत्रकाल, संगम युग, मौर्यकाल, मौर्योत्तर काल , गुप्तकाल, गुप्तोत्तर काल, राजपूत राजवंश, पल्लव वंश के बारे में पढ़ते हैं।

पाषाणकाल –

इतिहास पाषाण काल

प्रागैतिहासिक काल को पाषाणकाल भी कहा जाता है। क्योंकि उस काल के सभी प्राप्त पुरातात्विक साक्ष्य पाषाण के बने थे। पाषाणकाल को तीन भागों पुरापाषाणकाल, मध्यपाषाणकाल व नवपाषाणकाल में बांटा गया है। इस काल में मानव का जीवन पूर्णतः असभ्य व बर्बर था। किसी भी तरह की लेखन शैली का कोई साक्ष्य नहीं मिला है। इस काल के अंतर्गत 3000ई.पू. तक के घनटाक्रम को रखा गया है।

पुरापाषाण काल –

यह पाषाण काल का आरंभिक काल है। इस काल में मानव पशुओं का शिकार करता था, और कन्दराओं में रहता था। इस काल में सिंध, नेपाल व केरल को छोड़कर संपूर्ण बारत में मानव के अस्तित्व के प्रमाण मिले हैं। मानव ने आग का अविष्कार पुरापाषाणकाल में किया। पहिये का अविष्कार नवपाषाणकाल में किया। पुरापाषाणकाल को भी तीन भागों निम्न-पुरापाषाणकाल, मध्य-पुरापाषाणकाल, उच्च-पुरापाषाणकाल। भारत में निम्न-पुरापाषाणकाल के साक्ष्य सोहन घाटी से प्राप्त हुए हैं। मध्य-पुरापाषाणकाल के साक्ष्य भारत में नेवासा से प्राप्त हुए हैं। भारत में उच्च-पुरापाषाणकाल के साक्ष्य बेलन घाटी से प्राप्त हुए हैं। इसके अतिरिक्त भीमबेटका, नर्मदा घाटी, डाडवाना, पुरुलिया, तुंगभद्रा नदी घाटी भी प्रमुख स्थल थे।

निम्न-पुरापाषाणकाल को उपकरणों के आधार पर दो भागों में विभक्त किया गया है। चापर चापिंग (पेबुल संस्कृति), और एल्यूलियन संस्कृति। इस काल के मुख्य उपकरण हस्तकुठार, गंडासा, खंडक, शल्क, बटिकाश्म थे। मध्य-पुरापाषाणकाल को फलक-ब्लेड स्क्रेपर संस्कृति के नाम से भी जाना जाता है। भारत में सर्वप्रथम 1863 ई. में ब्रिटिश भूविज्ञानी रॉबर्ट ब्रुस फूट ने पाषाण निर्मित साक्ष्य पल्लावरम (मद्रास) से प्राप्त किये। डी. टेरा. व पीटरसन ने 1935 ई. में शिवालिक पहाड़ियों से पाषाण उपकरण प्राप्त किये।

मध्य पाषाण काल –

भीमबेतका, आदमगढ़, सरायनाहर राय, मोरहाना,  लेखहीमा, वीरभानुपुर, बगोर, पंचपद्र घाटी, सोजत, लंघनाज, अक्खज, बलसाना, बिंध्य, सतपुड़ा के क्षेत्र, संगनकल्ल इस काल से संबंधित प्रमुख स्थल हैं। इस काल के लोग अंत्येष्टि संस्कार से परिचित थे। मानव के साथ कुत्ते की भी अस्थियां प्राप्त हुई हैं। महादेव पहाड़ियों (पंचमढ़ी) में मध्य पाषाण युग के शैलाश्रय मिले हैं। पशुपालन के प्राचीनतम साक्ष्य और मानव अस्थिपंजार सबसे पहले इसी काल के प्राप्त हुए हैं। शवों को दफनाने की प्रथ की शुरुवात इसी काल में हुई। इस काल के उपकरण क्वार्टजाइट पत्थर से निर्मित होते थे। बी.डी. मिश्रआ ने लेखहिया का उत्खनन कराया, यहाँ से 17 मानव कंकाल मिले। उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में स्थित चौपानीमाण्डो मध्यपाषाणिक स्थल है। यहाँ से प्राप्त मृदभाँड संसार के प्राचीनतम साक्ष्यों में से एक हैं।

नवपाषाण काल –

बलूचिस्तान, आदमगढ़, चिरांद, कोटदीजी, प्रायद्वीपीय भारत, पं बंगाल, बेलन खाटी (उत्तर प्रदेश), बुर्जहोम व गुफ्फरकराल (कश्मीर), मेहरगढ़ इस काल के प्रमुख स्थल हैं। कृषि व पशुपालन का आरंभ इस काल में ही हुआ। मृदभाण्ड का निर्माण, कपड़ों की बुनाई, आग से भोजन पकाना, नाव का निर्माण इसी काल से प्रांरभ हुआ। इस काल में मनुष्य स्थायी निवासी बन गया, झोपड़ी बना के रहने लगा। उत्तर प्रदेश की बेलन घाटी से चावल के साक्ष्य मिले हैं। सर्वप्रथम कृषि का साक्ष्य मेहरगढ़ से प्राप्त हुआ। सर्वप्रथम कृषि व पशुपालन के साक्ष्य बागोर व आदमगढ़ से प्राप्त हुए। बुर्जहोम (कश्मीर) से मनुष्य के साथ कुत्ते को दफनाने के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।

सर्वप्रथम साक्ष्य कहाँ से मिले –

  • सर्वप्रथम कृषि के साक्ष्य कहाँ से प्राप्त हुए ? – मेहरगढ़
  • पशुपालन के सर्वप्रथम साक्ष्य कहाँ से प्राप्त हुए ? – बागोर
  • चावल के अवशेष कहाँ से प्राप्त हुए – कोलडीहवा
  • सूती कपड़े के साक्ष्य कहाँ से प्राप्त हुआ – नेवासा
  • कपड़े की छपायी के अवशेष कहाँ से प्राप्त हुए – अतरंजीखेड़ा
  • गर्त आवास के साक्ष्य कहाँ से प्राप्त हुए ? – बुर्जहोम
  • मातृदेवी की लघु मूर्ति, हाथी दांत के मनके, सांड की मृण्मूर्ति कहाँ से प्राप्त हुए ? – इनामगाँव
  • चिरांद हड्डी के औजार कहाँ से प्राप्त हुए ? – आदमगढ़
  • जंगली गन्ना, चावल व चूड़ियों के साक्ष्य कहाँ से प्राप्त हुए ? – हस्तिनापुर
  • लोहे का हंसिया, ताम्र चूड़ियां व कुदाल कहाँ से प्राप्त हुईं  – जखेड़ा

हड़प्पा सभ्यता या सिंधु घाटी सभ्यता –

हड़प्पा सभ्यता या सिंधु घाटी सभ्यता

सिंधु घाटी सभ्यता भारत की पहली सभ्यता के साथ साथ विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक है। इस सभ्यता के अधिकांश क्षेत्र सिंधु व उसकी सहायक नदियों के आस पास थे। इसी कारण इसे सिंधु घाटी सभ्यता का नाम दिया गया। इस सभ्यता का पहला प्राप्त स्थल हड़प्पा था। जिस कारण यह सभ्यता हड़प्पा सभ्यता भी कहलाती है। सभ्यता के काल निर्धारण को लेकर सभी विद्वान एकमत नहीं है। परंतु कार्बन डेटिंग जैसी वैज्ञानिक पद्यति के आधार पर इसकी तिथि 2300-1700 ई. पू. बताई गई है।

वैदिक संस्कृति –

भारतीय इतिहास में हड़प्पा सभ्यता के पतन के बाद आर्यों ने भारत में वैदिक संस्कृति की नींव रखी। वैदिक काल को चार वेदों के आधार पर चार भागों में बाँटा गया है। भारत के संपूर्ण इतिहास में स्त्रियों की दशा वैदिक काल में सर्वाधिक सुदृढं थी।

ऋग्वेद – होतृ/होता

वैदिक काल

  • ऋक् का अर्थ – छन्दों व चरणों से युक्त मंत्र
  • पहला व 10वां मण्डल सबसे अंत में जोड़ा गया
  • 10वें मण्डल के पुरुष सूक्त में 4 वर्णों का उल्लेख – शूद्र शब्द का पहला उल्लेख इसी में
  • पिता (335 बार), जन (275), इन्द्र (250), माता (234), अग्नि (200), गाय (176), विश (171), विष्णु (11)
  • ऋग्वेद की अनेक बातें ईरानी ग्रंथ अवेस्ता से मिलती हैं।
  • सबसे पवित्र नदी सिंधु, फिर सरस्वती (नदीतमा), गंगा का जिक्र बस 1 बार, यमुना का 3 बार
  • ऋग्वेद में नदियों की संख्या 25,
  • महिलाएं सभा व विदथ में भाग ले सकती थीं

ऋग्वैदिक नदियों के प्राचीन नाम –

  • शतुद्रि – सतलज
  • पुरुष्णी – रावी
  • अस्किनी – चेनाव
  • वितस्ता – झेलम
  • विपासा – व्यास
  • गोमती – गोमल
  • कुभा – काबुल
  • दृश्द्वती – घग्घर
  • सदानीरा – गंडक
  • क्रुमु – कुर्रम
  • सुवस्तु – स्वात

सामवेद – उद्गाता

साम का अर्थ है गान, भारतीय संगीत का मूल, मुख्यतः सूर्य की स्तुति के मंत्र हैं।

यजुर्वेद – अर्ध्वर्यु

यजुर्वेद दो भाग में – कृष्ण यजुर्वेद व शुक्ल यजुर्वेद(वाजसनेयी संहिता)। यजु (यज्ञ), यह कर्मकाण्ड प्रधान वेद। यह गद्य व पद्य में।

अथर्ववेद

20 अध्याय, 731 सूक्त, 6000 मंत्र। आर्य व अनाय्य विचारों का समन्वय। परीक्षित को कुरुओं का राजा कहा।

  • उपनिषद
  • सामवेद – छान्दोग्य, जैमिनी
  • यजुर्वेद – कठोपनिषद, इशोपनिषद, श्वेताश्वर, मैत्रायणी।

आर्यों का मूल स्थान –

  • तिलक – उत्तरी ध्रुव
  • मैक्समूलर – मध्य एशिया (बैक्ट्रिया)। सर्वाधिक मान्य
  • सप्तसैंध्व प्रदेश – अविनाश चंद्रा दास
  • तिब्बत – दयानन्द सरस्वती
  • ब्रह्मऋषि देश – गंगानाथ झा
  • गार्डन चाइल्ड व नेहरिंग – दक्षिणी रूस
  • प्रो. पेन्का – जर्मनी के मैदान
  • गाइल्स महोदय – हंगरी व डेन्यूब नदी घाटी

ब्राह्मण

  • ऋग्वेद – ऐतरेय, कौषीतिकी
  • सामवेद – पंचविश (ताण्ड्य ब्राह्मण)
  • यजुर्वेद – शतपथ, तैतरीय
  • अथर्ववेद – गोपथ (एकमात्र)

उपवेद – आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्ववेद, शिल्पवेद।

  • वेदांग 6 – कल्प, निरुक्त, ज्योतिष, छन्द, व्याकरण, शिक्षा।
  • पुराण – 18, रचना लोमहर्ष व पुण उग्रश्रवा ने, अमरकोष में पुराणों के 5 विषय बताए, मत्स्य पुराण सबसे प्राचीन व प्रामाणिक, मौर्य वंश-विष्णु पुराण, मत्स्य पुराण – शुग, सातवाहन, गुप्तवंश-वायुपुराण
  • संहिता – चार वेदों का सम्मिलित रूप
  • अरण्यक – ब्राह्मण ग्रंथों के अंतिम भाग हैं। जंगल में पढ़े जाने  कारण आरण्यक
  • उपनिषद – कुल 108 (प्रमाणिक 12), अरण्यकों के पूरक, भारतीय दर्शन के प्रमुख स्त्रोत, उत्तरवैदिक रचना
  • कल्पसूत्र – धर्म सूत्र, गृह्य, श्रौत। विधि व नियम का उल्लेख।
  • धर्मसूत्र से ही स्मृति ग्रंथों का विकास।
  • व्याकरण ग्रंथ – अष्टध्यायी, महाभाष्य (टीका)
  • मनुस्मृति (200 ई.पू से 200 ई. – सबसे प्राचीन) -याज्ञवल्क्य – नारदस्मृति – पराशर/वृहस्तपि – कात्यायन स्मृति
  • निरुक्त – रचना ‘यास्क’ ने की, यह भाषा विज्ञान हैं। ‘शब्दों का अर्थ क्यों होता है’

धर्म सुधार आंदोलन –

इसके अंतर्गत बौद्ध व जैन धर्म के इतिहास को पढ़ते हैं। इसमें बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध के बारे में पढ़ते हैं। जैन धर्म के तीर्थांकर महावीर स्वामी के बारे में पढ़ते हैं। फिर इन दोनो धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है। याद रहे जैन धर्म बौद्ध धर्म से कहीं अधिक पुराना है। क्योंकि महावीर स्वामी जैन धर्म और महात्मा बुद्ध समकालीन ही थे। परंतु महावीर स्वामी ने जैन धर्म की स्थापना नहीं की बल्कि वे जैन धर्म के 24वें एवं अंतिम तीर्थांकर थे। जब्कि महात्मा बुद्ध ने बौद्ध धर्म की स्थापना की थी।

जैन धर्म के तीर्थांकर –

  1. ऋषभदेव
  2. अजितनाथ
  3. सम्भवनाथ
  4. अभिनन्दन
  5. सुमितनाथ
  6. पद्मप्रभु
  7. सुपार्श्वनाथ
  8. चंद्र प्रभा
  9. सुविधि
  10. शीतलनाथ
  11. श्रेयांशनाथ
  12. वासुपूज्य
  13. विमलनाथ
  14. अनन्तनाथ
  15. धर्मनाथ
  16. शांतिनाथ
  17. कुंथुनाथ
  18. अरनाथ
  19. मल्लिनाथ
  20. सुनिसुव्रतनाथ
  21. नेमिनाथ
  22. अरिष्टनेमि
  23. पार्श्वनाथ
  24. महावीर

महाजनपद काल – इतिहास

छठवीं शताब्दी ईसा पूर्व भारत में 16 महाजनपदों का अस्तित्व था। इसकी जानकारी अंगुत्तर निकाय से प्राप्त होती है। इन सभी राज्यों में आपसी मदभेद बढ़ता गया और लड़ाइयाँ शुरु हुईं। इन सबके परिणामस्वरूप मगध का उत्थान हुआ। भारतीय इतिहास में मगध एक शक्ति के रूप में स्थापित हुआ।

मगध का उत्कर्ष – इतिहास

कालांतर में मगध ही उत्तर भारत के साम्राज्य का केंद्र बना। भारत का पहला ऐतिहासिक शासक चंद्रगुप्त मौर्य मगध का ही शासक था। इसने मगध को एक शक्ति के रूप में स्थापित किया।

सूत्रकाल –

सूत्रकाल की जानकारी हमें सूत्र साहित्य से प्राप्त होती है। इस काल के इतिहास की जानकारी का यह एकमात्र स्त्रोत है।

संगम युग –

संगम से तात्पर्य तमिल कवियों के संघ से है। संगम युग में चोल, चेर, पाण्ड्य राज्यों के इतिहास की जानकारी प्राप्त होती है। ये तीनों ही दक्षिण भारत के साम्राज्य थे। उत्तर पूर्व में चोल साम्राज्य का विस्तार था। दक्षिण-पश्चिम में चेर साम्राज्य का विस्तार था। सबसे दक्षिण में  पाण्डय साम्राज्य विस्तृत था, कावेरी नदी इसके उत्तर में थी। समयांतराल के साथ चोलों की राजधानियां उत्तरी ननलूर व उरैयूर, पुहार (कावेरीपत्तनम) थीं। चेरों की राजधानियां वांजि, व तोण्डी थीं। पाण्ड्यों की राजधानियां कोरकई व मदुरई थीं।

मौर्यकाल –

मौर्य वंश की स्थापना चंद्रगुप्त मौर्य द्वारा की गई थी। अशोक महान इसी वंश का शासक था। मौर्यकाल के इतिहास की विस्तृत जानकारी के लिए यहाँ क्लिक करें

अशोक के अभिलेख :- शिलालेख, स्तंभलेख व गुहालेख

लघु शिलालेख से जानकारी प्राप्त होती है कि अशेक ने राज्याभिषेक के 10वें वर्ष बोधगया की यात्रा की। राज्याभिषेक के 20वें वर्ष लुम्बिनी की यात्रा की और ग्राम को करमुक्त घोषित किया। केवल 1/8 हिस्सा कर लेने का आदेश दिया। अशोक ने अपने स्तंभों पर बुद्ध के जीवन से संबंधित पशुओं की आकृतियां बनवाईं। अशोक के धम्म की परिभाषा राहुलोवादसुत्त से ली गई है। 5वें शिलालेख के अनुसार अशोक ने राज्याभिषेक के 13वें वर्ष धर्ममहामात्र की नियुक्ति की।

अशोक ने प्रथम प्रथक शिलाालेख में कहा ‘सारी प्रजा मेरी संतान है’। प्रथम शिलालेख में पशुबलि, सामाजिक उत्सवों व समारोहों पर प्रतिबंध लगाया।

द्वितीय शिलालेख में समाज कल्याण संबंधी कार्य, मनुष्य व पुश चिकित्सा, चोल, पाण्य, सतियपुत्र, केरलपुत्र का उल्लेख मिलता है।

तृतीय शिलालेख में अदिकारियों को हर 5 साल में राज्य के दौरे पर जाने का आदेश दिया गया। युक्त रज्जुक व प्रादेशिक की नियुक्ति का उल्लेख भी तीसरे शिलालेख में मिलता है।

चतुर्थ शिलालेख में धम्म की नीति के द्वारा अनैतिकता व हिंसा को रोकने का वर्णन।

राज्याभिषेक के 13वें वर्ष धम्म महामात्रों की नियुक्ति की चर्चा पंचम शिलालेख में है। धम्म महामात्रों के कर्तव्यों का भी वर्णन इसी शिलालेख में है।

छठा शिलालेख –

धम्म महामात्रों के लिए आदेश लिखे हैं। राज्य कर्मचारी किसी भी समय राज्य कार्य के संबंध में मिल सकते हैं। अशोक विश्व कल्याण को परम कर्तव्य मानता है।

सातवां शिलालेख

सभी सम्प्रदायों के बीच सहिष्णुता का आह्वान किया गया है। छायादार वृक्ष, कुएं, जलाशय, धर्मशाला इत्यादि बनवाना।

आठवां शिलालेख

अशोक की धम्म यात्राओं का उल्लेख आठवें शिलालेख में मिलता है। सार्वजनिक निर्माण कार्यों का वर्णन मिलता है।

नौवां शिलालेख

सार्वजनिक उत्सवों की निन्दा अशोव के 9वें शिलालेख में की गई है। इसमें नैतिकता पर बल दिया गया है। स्त्रियों द्वारा किया गया कृत्य मंगलाचार के लिए तुच्छ व निरर्थक माना गया है।

दसवां शिलालेख

राजा व अधिकारियों को हर क्षण प्रजा के बारे में सोचने का निर्देश दिया गया। धम्म की श्रेष्ठता पर बल दिया गया। परलोक के प्रति अशोक की आस्था को दर्शाया गया है।

ग्यारहवां शिलालेख

माता पिता, परिचित, मित्रों, श्रमणों, संबंधियों, ब्राह्मणों व प्राणियों के प्रति यथोचित व्यवहार की बात की गई है।

बारहवां शिलालेख

सम्प्रदायों के मध्य सहष्णुता रखने का निर्देश है। इसमें सभी सम्प्रदायों को सम्मान देने की बात कही गई है। इसमें स्त्री अध्यक्ष महामात्र का उल्लेख मिलता है।

तेरहवां शिलालेख

युद्ध के स्थान पर धम्म विजय की बात कही गई। धम्म विजय में 5 यवन राजाओं व आटविक जातियों का वर्णन है। इसमें ‘कलिंग युद्ध’ की जानकारी मिलती है।

चौदहवां शिलालेख – अशोक ने जनता को धार्मिक जीवन जीने के लिए प्रेरित किया।

मौर्योत्तर काल –

मौर्यों के बाद एक बार फिर राज्य में अव्यवस्था फैल गई। राज्य छोटे छोटे प्रांतपतियों द्वारा विघटित हो गया। इसके अंतर्गत शुंग, कण्व, आंध्र सातवाहन एवं विदेशी आक्रमणों के बारे में जानकारी प्राप्त होती हैं। आक्रमणकारियों में इंण्डो-ग्रीक, शक, हिंद-पार्थियन(पहलव), कुषाण शासकों में बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

गुप्तकाल –

गुप्तकाल का संस्थापक श्रीगुप्त था। इसके बाद चंद्रगुप्त प्रथम गुप्त वंश का पहला प्रतापी शासक था। इसी को गुप्त वंश का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। आगे चलकर समुद्रगुप्त इसी वंश का शासक हुआ। यह एक महान विजेता व संगीतप्रिय शासक था। चंद्रगुप्त विक्रमादित्य इसी वंश का प्रतापी शासक हुआ। गुप्त वंश की विस्तृत जानकारी के लिए यहाँ क्लिक करें

गुप्तोत्तर काल –

गुप्तवंश में बहुत से प्रतापी शासक हुए। परंतु आगे चलकर कुछ अयोग उत्तराधिकारी इस विस्तृत साम्राज्य को नहीं संभाल सके। फलस्वरूप इसका विघटन होना प्रारंभ हो गया। फलस्वरूप बहुत से राजवंशों का उदय हुआ। इनमें मैत्रक, मौखरि, पुष्यभूति, परवर्ती गुप्त व गौड़ थे। इनमें पुष्यभूति राजवंश का विस्तार सर्वाधिक था। पुष्यभूति इस वंश का संस्थापक था। इनकी राजधानी थानेश्वर थी। इस वंश की स्वतंत्रता का जन्मदाता प्रभाकरवर्धन था। गौड़ नरेश शशांक शैव धर्म का अनुयायी था। इसी ने बोधिवृक्ष को कटवाया था।

हर्षवर्धन –

काफी समय तक अराजकता की स्थिति के बाद हर्ष वर्धन शासक बना। इसने परमभट्टारक नरेश की उपाधि धारण की। हर्ष ने अपने दूत चीन भेजे। ह्वेनसांग से मिलने के बाद हर्ष पूर्ण बौद्ध बन गया। उसने बौद्ध धर्म की महायान शाखा को राज्याश्रय प्रदान किया। इसके समय नालंदा महाविहार बौद्ध शिक्षा का केंद्र था। हर्ष के समय हर 5 वर्ष में प्रयाग में एक समारोह आयोजित किया जाता था। जिसे महामोक्षपरिषद कहा जाता था। स्वयं ह्वेनसांग छठे महामोक्षपरिषद् में सम्मिलित हुआ था। महाकवि बाण भट्ट हर्ष का दरबारी कवि था। इसने हर्षचरित व कादम्बरी की रचना की थी। पुलकेशिन द्वितीय ने नर्मदा नदी के तट पर हर्ष को पराजित कर दिया।

पूर्व-मध्यकाल के राजपूत राजवंश –

हर्षवर्धन के बाद जिन साम्राज्यों का उन क्षेत्रों पर उदय हुआ वे राजपूत थे। इसके अंतर्गत राजपूतों की उत्पत्ति के बारे में पढ़ते हैं। इसमें गुर्जर-प्रतिहार, परमार, चालुक्य, चौहान, गहड़वाल, चंदेल आते हैं। बंगाल के पाल व सेन वंश भी इसी के अंतर्गत आते हैं। गुर्जर-प्रतिहार वंश का संस्थापक नागभट्ट प्रथम था। राष्ट्रकूट राजवंश की नींव दंतिदुर्ग ने डाली। इनकी प्रारंभिक राजधानी मयूरखिंदी थी। बाद में अमोघवर्ष ने मान्यखेट को राष्ट्रकूटों की राजधानी बनाया। बंगाल में पाल वंश की स्थापना गोपाल ने की। पाल नरेश धर्मपाल ने ही विक्रमशिला विश्वविद्यालय बनवाया।

अरबों का सिंध पर आक्रमण –

भारत पर अरबों का पहला सफल आक्रमण 711-12 ई. में मोहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में हुआ। ये भारत पर आक्रमण करने वाले पहले मुस्लिम थे। सिंध पर अरब (मो. बिन कासिम) के आक्रमण के समय सिंध पर दाहिर का शासन था। इसी आक्रमण के बाद पहली बार भारत में जजिया कर की शुरुवात हुई। 1216 ई. में लिखी गई चचनामा से अरबों के आक्रमण की जानकारी प्राप्त होती है।

पल्लव वंश –

पल्लव वंश का संस्थापक सिंह वर्मा था। इनकी राजधानी काच्ची थी। सिंहविष्णु को इस पल्लव साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। अपराजित वर्मन इस वंश का अंतिम शासक था। पल्लव नरेश अपनी उत्पत्ति ब्रह्मा से मानते थे।

कश्मीर के राजवंश –

कश्मीर के हिंदू राजवंशों के इतिहास की जानकारी कल्हण की राजतरंगिणी से प्राप्त होती है। इस काल में कश्मीर में कार्कोट वंश, उत्पल वंश, व लोहार वंश हुए। दर्लभक ने कश्मीर में कार्कोट वंश की नींव डाली। ललितादित्य मुक्तिपीड (724-760 ई.) कश्मीर का सर्वाधिक शक्तिशाली व साम्राज्यवादी शासक हुआ। इसने मार्तण्ड मंदिर का निर्माण कराया और कश्मीर में परिहासपुर नगर बसाया। अवंतिवर्मन ने 855 ई. में कश्मीर में उत्पल वंश की स्थापना की। इस वंश के शासक क्षेमेंद्र की पत्नी लोहार वंशीय रानी दिद्दा थी। लोहार वंश की स्थापना संग्राम राज (1003-1028 ई.) ने की। इस वंश का शासक हर्ष एक विद्वान व कवि था, कल्हण इसी का आश्रित कवि था। हर्ष को कश्मीर का नीरो कहा जाता था। इस वंश का अंतिम शासक जयसिंह था, राजतरंगिणी में इसी के समय तक का विवरण दिया गया है।

मध्यकालीन भारत का इतिहास

इसके अंतर्गत मुख्य रूप से सल्तनत काल, मुगल वंश और दक्षिण भारत के राज्यों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

मध्यकालीन भारतीय इतिहास के स्त्रोत –

मध्यकालीन भारत के इतिहास को जानने के साहित्यिक, पुरातात्विक साक्ष्य व विदेशी यात्रियों के विवरण प्रमुख हैं। साहित्यिक साक्ष्यों में अरबी, फारसी, हिंदी व संस्कृत के ग्रंथ आते हैं। विदेशी यात्रियों में अलबरूनी, इब्नबतूता, अब्दुर्रज्जाक, डोमिंगो पायस, निकोलो कोंटी, व मार्को पोलो के विवरण महत्वपूर्ण हैं। पुरातात्विक साक्ष्यों में इमारतें, महल, मीनार, दरवाजे, मस्जिद, मकबरा इत्यादि प्रमुख हैं।

तुर्कों के आक्रमण से पूर्व भारतीय राजवंश –

भारत पर तुर्कों के आक्रमण से पूर्व भारत एक विस्तृत व सुदृढ़ साम्राज्य नहीं अपितु छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था।

तुर्कों का आक्रमण –

भारत पर आक्रमण करने वाला पहला तुर्क सुबुक्तगीन (अल्पतगीन का पुत्र) था। इसने हिंदूशाही शासक जयपाल पर आक्रमण कर उसे पराजित किया। इस्लाम जगत में सुल्तान की पदवी पाने वाला पहला शासक महमूद गजनबी हुआ। महमूद गजनबी से 1009 से 1027 तक भारत पर 17 बार आक्रमण किया। इसका सबसे प्रसिद्ध आक्रमण 1025 में गुजरात के सोमनाथ मंदिर पर हुआ। इसमें इसे अपार धन सम्पदा की प्राप्ति हुई।

इसके बाद 1175 ई. में गोर के शाक मुहम्मद गोरी ने भारत के मुल्तान पर आक्रमण किया। 1178 ई. में गोरी ने गुजरात के शासक मूलराज द्वितीय पर आक्रमण किया। इसमें गोरी को भारत में पहली बार हार का मुह देखना पड़ा। 1191 तराइन की पहली लड़ाई में गोरी का सामना पृथ्वीराज चौहान से हुआ। इसमें गोरी की हार हुई। अगले साल 1192 ई. में तराइन की दूसरी लड़ाई में गोरी ने पृथ्वीराज चौहान को हरा दिया। 1194 ई. में चंदावर की लड़ाई में गोरी ने कन्नौज के शासक जयचंद गहड़वाल को पराजित किया। 1206 ई. में गोरी की मृत्यु हो गई।

दिल्ली सल्तनत का इतिहास

दिल्ली सल्तनत में कुल पांच राजवंशो के बारे में पढ़ते हैं। ये हैं गुमाम वंश, खिलजी वंश, तुगलक वंश, सैय्यद वंश और लोदी वंश।

उत्तर भारत और दक्कन के प्रांत – इतिहास

इसके तहत मालवा, मेवाड़, मारवाड़, गुजरात, जौनपुर, बंगाल, कश्मीर, खानदेश, बहमनी, बीदर, बरार, अहमदनगर, बीजापुर, गोलकुण्डा आते हैं। सल्तनत काल में सर्वाधिक विद्रोह बंगाल क्षेत्र में हुए। कश्मीर में 1301 ई. में सूहादेव ने हिंदूराजवंश की स्थापना की। इसी समय जौनपुर शर्की साम्राज्य की राजधानी बना। 1305 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने मालवा पर कब्जा कर लिया। 1401 ई. में हुसैन खाँ गोरी ने मालवा की स्वतंत्र सल्तनत की स्थापना की। मेवाड़ की पूर्व राजधानी नागदा थी, जिसे सल्तनत के आक्रमणों के बाद चित्तौड़ कर लिया गया। 1399 ई. में मलिक रजा फारुकी ने खानदेश में स्वतंत्र मुस्लिम राज्य की स्थापना की। यूसुफ आदिल खाँ ने 1489-90 ई. में बीजापुर में आदिलशाही वंश की नींव रखी। कुली शाह ने गोलकुण्डा में कुतुबशाही वंश की स्थापना की। अमीर अली बरीद ने बीदर के स्वतंत्र राज्य की नींव रखी। अली बरीद को दक्कन की लोमड़ी के नाम से जाना जाता है।

विजयनगर साम्राज्य का इतिहास

1336 ई. में विजयनगर साम्राज्य की स्थापना दो भाइयों हरिहर और बुक्का ने की थी। इनके पिता संगम के नाम पर इसका वंश संगम वंश कहलाया। विजयनगर साम्राज्य पर चार राजवंशों संगम वंश, सालुव वंश, तुलुव वंश, और आरवीडु वंश ने शासन किया। आरवीडु वंश का शासक श्रीरंग तृतीय विजयनगर साम्राज्य का अंतिम शासक था। 23 जनवरी 1565 को हुए तालीकोटा के युद्ध में विजयनगर की प्रतिष्ठा धुमिल हो गई। इस युद्ध में विजयनगर की भीषण हार हुई। विजयनगर की बुरी तरह लूटा व ध्वस्त कर दिया गया।

मुगलकाल – इतिहास

भारत में मुगलकाल की स्थापना बाबर ने की। बाबर के बाद हुमायूँ, अकबर, जहाँगीर, शाहजहां, औरंगजेब, बहादुरशाह इत्यादि मुगल शासक हुए। मुगल वंश की विस्तृत जानकारी के लिए यहाँ क्लिक करें

मराठा साम्राज्य –

शिवाजी का जन्म पूना के निकट शिवनेर के दुर्ग में हुआ था। मराठा क्षेत्र को शक्ति के रूप में विकसित करने का श्रेय छत्रपति शिवाजी को जाता है।  उनके बाद यह शक्ति पेशवा में परिवर्तित हो गई। पेशवाओं की शक्ति के उत्थान में बालाजी विश्वनाथ पहला पेशवा बना।

15वीं और 16वीं शताब्दी के धार्मिक आंदोलन –

भारत में हिंदू व इस्लामी संस्कृति के फैलने के बाद पंद्रहवी और सोलहवीं शताब्दी में हिंदू व मुस्लिम धार्मिक आंदोलन हुए। हिंदू धार्मिक आंदोलन भक्ति आंदोलन कहलाया। वहीं मुस्लिम आंदोलन सूफी आंदोलन। इस्लाम में सूफीवाद की शुरुवात ईरान से हुई। सूफी सिलसिलों में चिश्ती सम्प्रदाय, सुरहावर्दी सम्प्रदाय, शत्तारी सिलसिला, नक्शबंदी सिलसिला इत्यादि आते हैं। भक्ति आंदोलन की शुरुवात शंकराचार्य ने की। कबीर, तुलसीदास, मीराबाई, रामानंद, रामानुज, रविदास, माधवाचार्य, बल्लभाचार्य, चैतन्य महाप्रभु, गुरुनानक इत्यादि भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत थे। इसी दौरान गुरुनानक देव जी ने एक अलग संप्रदाय की शुरुवात की। जो आगे चलकर सिक्ख कहलाए।

आधुनिक भारत का इतिहास

मुगलों का पतन व नवीन राज्यों का उदय –

1707 ई. में दक्षिण भारत के अहमदनगर में औरंगजेब की मृत्यु के साथ ही उत्तर मुगलकाल की शुरुवात हुई। जहाँ एक ओर पूर्व मुगल शासकों ने साम्राज्य की शक्ति व क्षेत्र का विस्तार किया। वहीं उत्तर मुगल इसे स्थिर भी न रख सके। उत्तर मुगल शासकों में बहादुर शाह प्रथम से बहादुर शाह द्वितीय (जफर) तक के शासक आते हैं।

उत्तर मुगल शासक – इतिहास

  • बहादुर शाह प्रथम (1707-1712 ई.)
  • जहाँदार शाह (1712 -1713 ई.)
  • फर्रुखशियर (1713 – 1719 ई.)
  • रफी उद् दरजात (1719 ई.)
  • रफी उद्दौला (1719 ई.)
  • मुहम्मद शाह (1719-1748 ई.)
  • अहमदशाह (1748-1754 ई.)
  • आलमगीर द्वितीय (1754-1759 ई.)
  • शाहआलम द्वितीय (1759-1806 ई.)
  • महम्मद अकबर (1806-1837 ई.)
  • बहादुर शाह जफर (1837-1857 ई.)

नवीन राज्यों का उत्थान –

इसते तहत दक्कन के निजाम, राजपूत, जाट, सिक्ख, मैसूर, अवध, बंगाल इत्यादि आते हैं।

दक्कन के निजाम – इतिहास

चिनचिकिल खाँ उर्फ निजाम उल मुल्क ने मुहम्मदशाह के शासनकाल में हैदराबाद राज्य की नींव रखी। 1720 ई. में इसे दक्कन का सूबेदार नियुक्त किया गया था। 1722 ई. में इसे दिल्ली बापस बुला लिया गया और वजीर नियुक्त किया गया। दरबार के षणयंत्रों वाले माहौल से तंग आकर इसने दक्कन जाने का फैसला किया। 1723 ई. के अंत में शिकार के बहाने यह दक्कन चला गया। इस समय दक्कन का सूबेदार मुबारिज खाँ था। चिनचिकिल खाँ ने 1724 ई. की सकूरखेड़ा की लड़ाई में उसे मार डाला। मोहम्मद शाह ने मजबूरी में चिनचिकिल खाँ को दक्कन का वायसराय बना दिया। 1725 ई. में चिनचिकिल खाँ ने हैदराबाद को अपनी राजधानी बनाया।

राजपूत – इतिहास

राजपूतों ने 18वीं शताब्दी में मुगलों की शक्ति क्षीण होती देख खुद को स्वतंत्र घोषित कर लिया। 1708 ई. में बहादुरशाह ने जोधपुर पर आक्रमण किया। अजीत सिंह ने अधीनता तो स्वीकार कर ली। लेकिन दुर्गादास व जयसिंह द्वितीय के साथ मिलकर मुगलों के विरुद्ध घटबंधन बनाया। 1714 ई. में मुगलों ने फिर जोधपुर पर आक्रमण किया। अब अजीत सिंह को अपनी पुत्री का विवाह मुगल शासक फर्रुखशियर से करना पड़ा। अब सैय्यद बंधुओं ने अजमेर व गुजरात की सूबेदारी अजीत सिंह को देकर अपनी ओर मिला लिया। फर्रुखशियर ने अजमेर के शासक जयसिंह को सवाई राजा की उपाधि दी। 1722 ई. में सवाई राजा जयसिंह ने जयपुर की स्थापना की। जयसिंह एक विज्ञान प्रेमी राजा थे। इन्होंने मथुरा, दिल्ली, वाराणसी, जयपुर, उज्जैन में वेधाशालाओं का निर्माण कराया।

जाट – इतिहास

जाट दिल्ली, मथुरा व आगरा के क्षेत्र में कृषि करने वाले मूलतः जमीदार थे। इन्होंने औरंगजेब की नीतियों के विरुद्ध विद्रोह किया। सबसे पहला विद्रोह साल 1669 ई. में तिलुपत के जमींदार गोकुल द्वारा किया गया था। इसके बाद 1686 ई. में राजाराम व रामचेरा ने विद्रोह किया। इसके बाद चूड़ामन ने जाटों का नेतृत्व किया। 1700 ई. में चूड़ामन ने भरतपुर की नींव डाली। 1721 ई. में मुगलों द्वारा इसका दुर्ग जीत लिए जाने के बाद इसने आत्महत्या कर ली। इसके बाद भतीजे बदन सिंह ने जाटों का नेतृत्व किया। अहमदशाह अब्दाली ने इसे राजा की उपाधि दी।

इसके बाद 1756 ई. में जाटों का नेतृत्व सूरजमल मे संभाला। इसे जाटों का अफलातून भी कहा जाता है। इसी के नेतृत्व में जाट पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों का साथ देने को तैयार हो गए। परंतु सदाशिव भाऊ से मतभेद होने के कारण जाट इस लड़ाई में शामिल न हो सके। 1763 ई. में सूरजमल की मृत्यु के बाद जाट राज्य का पतन होने लगा। 1805 ई. में रणधीर सिंह ने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ली।

सिख राज्य – इतिहास

गुरुनानक देव जी ने सिख राज्य की नींव पंजाब में डाली। सिखों के कुल 10 गुरु हुए। गुरुनानक देव जी सिखों के प्रथम गुरु व संस्थापक थे। इन्हीं के शिष्य आगे चलकर सिख कहलाए। ये दिल्ली के शासक इब्राहीम लोदी के समकालीन थे। इनका जन्म 1469 ई. में तलवंडी के एक खत्री परिवार में हुआ था। गुरुनानक जी के पिता का नाम कालूजी व माता का नाम तृप्ता था। इन्होंने अपने शिष्य लहना को अपना उत्तराधिकारी बनाया। लहना ही आगे चलकर अंगद नाम से सिख सम्प्रदाय के अगले गुरु बने।

गुरु अंगद (1539 -52 ई.) –

इन्होंने खादुर में गुरु गद्दी बनाई। गुरुनानक जी द्वारा चलाई लंगर व्यवस्था को नियमित किया। गुरुमुखी लिपि का आविष्कार भी गुरु अंगद ने ही किया।

गुरु अमरदास (1552-74 ई.) –

ये मुगल बादशाह अकबर के समकालीन थे। इन्होंने गुरु गद्दी गोइन्दवाल में स्थापित की। इन्होंने नियम बनाया कि कोई भी लंगर में भोजन किये बिना गुरु से नहीं मिल सकता। इन्होंने अपने उपदेशों के प्रचार व प्रसार हेतु 22 गद्दी स्थापित कीं। बादशाह अकबर इनसे मिलने स्वयं गोइन्दवाल आये। अमरदास ने अपने शिष्य व दामाद रामदास को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।

रामदास (1574-81 ई.) –

ये भी अकबर के ही समकालीन थे। अकबर ने इन्हें 500 बीघा जमीन दान की थी। इसी जमीन पर इन्होंने अमृतसर नगर की स्थापना की। पहले इस नगर का नाम रामदासपुर था। इन्होंने अपने तीसरे पुत्र अर्जुन को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर गुरु के पद को पैतृक बनाया।

अर्जुन देव (1581 – 1606 ई.)

इन्हें सच्चा बादशाह भी कहा जाता है। इन्होंने तरनतारन व करतारपुर नगर का निर्माण किया। 1595 ई. में व्यास नदी के तट पर गोविन्दपुर नामक नगर बसाया। इन्होंने अनिवार्य आथ्यात्मिक कर लेना शुरु कर दिया। अपने शिष्यों से कहा कि अपनी आय का 10वां हिस्सा गुरु को दें। 1604 ई. में इन्होंने आदिग्रंथ की रचना की। मुगल शहजादे खुशरो की सहातया करने के कारण जहाँगीर ने इन्हें 1606 ई. में मृत्यु दण्ड दिया।

गुरु हरगोविंद (1606-45 ई.) –

इन्होंने सिखों में सैन्य भावना का संचार किया। सैन्य शिक्षा प्रारंंभ की और आत्मरक्षा हेतु शस्त्र धारण करने की अनुमति दी। अमृतसर नगर की किलेबन्दी कराई और यहाँ पर 12 फुट ऊँचे अकालतख्त की स्थापना की। धन के स्थान पर इन्होंने अपने शिष्यों से घोड़े व शस्त्र प्राप्त किये। इन्होंने शिष्यों को मांसाहार की आज्ञा दी। जहाँगीर ने इन्हें 2 वर्ष तक ग्वालियर के किले में रखा। इन्होंने कश्मीर में कीरतपुर की स्थापना की। 1645 ई. में कीरतपुर में इनका निधन हो गया।

गुरु हरराय (1645-61 ई.) –

इनके समय शाहजहाँ के पुत्रों में उत्तराधिकार का युद्ध हुआ। सामूगढ़ युद्ध में पराजित होने के बाद दाराशिकोह गुरु हरराय से मिला। इससे नाराज मुगल बादशाह औरंगजेब ने गुरु को दिल्ली बुलाया। गुरु ने अपनी जगह अपने पुत्र रामराय को दिल्ली भेजा।

गुरु हरकिशन (1661-64 ई.) –

इनका अपने बड़े भाई रामराय से विवाद हो गया। रामराय ने देहरादून में एक अलग गद्दी स्थापित की। इनकी मृत्यु चेचक के कारण हो गई। इतिहास ।

गुरु तेगबहादुर (1664-75 ई. ) –

अमृतसर की जगह मखोवाली को इन्होंने अपना स्थान बनाया। 1675 ई. में औरंगजेब ने इन्हें दिल्ली बुलाया और इस्लाम कबूल करने को कहा। इन्होंने इस्लाम स्वीकार करने से मना कर दिया। औरंगजेब ने 5 दिन तक यातना देकर इन्हें मार दिया। इतिहास ।

गुरु गोविंद सिंह (1675 – 1708 ई.) –

ये सिख धर्म के 10वें व अंतिम गुरु थे। इन्होंने मखोवाल के पास आनन्दपुर नगर की स्थापना की और अपनी गद्दी स्थापित की। इन्होंने कृष्ण अवतार नामक ग्रंथ की रचना की। विचित्रनाटक इनकी आत्मकथा है। 1699 ई. में गोविंद सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की। इन्होंने 80 हजार की खालसा सेना को तैयार किया। इन्होंने शिखों को केश, कंघा, कड़ा, कच्छा, कृपाण धारण करने को कहा।

1704 ई. के आनन्दपुर के द्वितीय युद्ध में मुगलों ने इनके दो पुत्रों फतह सिंह व जोरावर सिंह को बंदी बना लिया। बन्दी बनाकर इ्न्हें सरहिन्द के किले में लाया गया। इन्हें भी इस्लाम स्वीकार करने के लए कहा गया। मना करने पर इन्हें 27 दिसंबर 1704 ई. को दीवार में जिंदा चिनवा दिया गया। 1705 ई. के चकमौर के युद्ध में गोविंद सिंह के दो अन्य पुत्र अजीत सिंह व जुझारू सिंह मारे गए। 1705 ई. के खिदराना के युद्ध के दौरान आदि ग्रंथ लुप्त हो गया। इसके बाद गोविंदसिंह ने आदि ग्रंथ का पुनः संकलन कराया। इन्होंने मृत्यु से पूर्व गुरु गद्दी को समाप्त कर दिया।

यूरोपियों का भारत आगमन –

यूरोपवासियों में सबसे पहले पुर्तगाली भारत आये। पूर्तगाली वास्कोडिगामा एक गुजराती गाइड अब्दुल मनीद के पथप्रदर्शन में 17 मई 1498 को भारत पहुँचा। कालीकट बंदरगाह पर जब ये पहुँचा तो जमोरिन ने इसका स्वागत किया। फ्रांसिस डी अल्मीडा भारत आया पहला पुर्तगाली गवर्नर था। इसके बाद अलबुकर्क तत्पश्चात नीनो डी कुन्हा भारत में पुर्तगाली गवर्नर बना। पुर्तगालियों के बाद डच भारत आये। ये हालैंड (नीदरलैंड) के निवासी थे। डचों ने भारत में अपनी पहली फैक्ट्री 1605 में मसूलीपट्टनम में खोली। डचों के बाद अंग्रेज भारत आये। इतिहास ।

इसके बाद भारत में फ्रांसीसियों का आगमन हुआ। लुई 14वें के समय मंत्री कोलबर्ट के प्रयासों से 1664 ई. में फ्रांसीसी व्यापारिक कंपनी की स्थापना हुई। फ्रांसीसियों ने भारत में अपनी पहली फैक्ट्री 1668 ई. में सूरत में स्थापित की। भारत में व्यापार पर एकाधिकार प्राप्त करने के लिए अंग्रेजों व फ्रांसीसियों में संघर्ष प्रारंभ हुआ। तमाम युद्धों व लड़ाइयों के बाद 1763 ई. में हुई पेरिस की संधि के बाद सप्तवर्षीय युद्ध समाप्त हो गया। अब फ्रांसीसी यहाँ साम्राज्य निर्माण नहीं कर सकते। वे मात्र व्यापारी बन के रह गए। इतिहास ।

भारत में ब्रिटिश शासन –

भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के इतिहास की विस्तृत जानकारी के लिए यहाँ क्लिक करें

जन आंदोलन (1757 से 1858 के बीच) –

1857 की क्रांति से पूर्व अन्य तमाम राजनीतिक व धार्मिक आंदोलन हुए। इनमें फकीर विद्रोह, संन्यासी विद्रोह, पागलपंथी, वहाबी आंदोलन, कूका आंदोलन, रमोसी विद्रोह, पहाड़िया विद्रोह, खोंड विद्रोह, कोल विद्रोह, संथाल विद्रोह, भील विद्रोह, मुण्डा विद्रोह, तानाभगत आंदोलन, चेंचू आंदोलन, रम्पा विद्रोह, खासी विद्रोह, अहोम विद्रोह, नागा आंदोलन इत्यादि प्रमुख हैं। इतिहास ।

1857 की क्रांति –

इस समय ब्रिटेन के प्रधानमंत्री पार्मस्टन थे। भारत का गवर्नर जनरल लार्ड कैनिंग था। विद्रोह के समय कंपनी का मुख्य सेनापति जार्ज एनिसन था। विद्रोह शुरु होने के बाद कॉलिन कैम्पवेल को सेनापति नियुक्त किया गया। इस समय भारत के मुगल शासक बहादुर शाह जफर थे। 1909 ई. में वीडी सावरकर ने अपनी पुस्तक ‘The Indian War of Independence 1857’ में इसे सुनियोजित स्वतंत्रता संग्राम की संज्ञा दी। 1857 ई. में सरकार ने आर. सी. मजूमदार को इस विद्रोह का इतिहास लिखने के लिए नियुक्त किया। परंतु उन्होंने यह कार्य करने से इनकार कर दिया। इन्होंने इस विद्रोह को ‘न तो प्रथम, न ही राष्ट्रीय और न ही स्वतंत्रता संग्राम’ की संज्ञा दी। इतिहास ।

विद्रोह का तात्कालिक कारण –

1857 के विद्रोह का तात्कालिक कारण था चर्बीयुक्त कारतूस। 1856 ई. में सरकार ने पुरानी ब्राउन बेस बन्दूक के स्थान पर नई इनफील्ड राइफल के प्रयोग का निश्चय किया। इसमें कारतूस के ऊपरी भाग को मुह से फाड़ना पड़ता था। तब यह बात फैल कई कि ये कारतूस गाय व सूअर की चर्बी से युक्त हैं। यह बात कालांतर में जांच के बाद सही सिद्ध हुई। 29 मार्च 1857 ई. को 34वीं नेटिव रेजिमेंट बैरकपुर (निकट मुर्शिदाबाद) के सिपाई मंगल पाण्डे ने एडजुटेंट ले. बाग की हत्या कर दी और मेजर सार्जेंट ह्यूरसन को गोली मार दी। 8 अप्रैल 1857 को मंगल पाण्डे को फांसी दे दी और रिजिमेंट भंग कर दी। इतिहास ।

किसान विद्रोह –

  • बंगाल के नदिया जिले के गोविंदपुर गाँव में शरु हुआ नील आंदोलन (1859-60 ई.)
  • बंगाल के पाबना जिले में शुरु किया गया पाबना विद्रोह (1873-76 ई.)
  • दक्कन उपद्रव (1875 ई.)
  • केरल के मालाबार में हुआ मोपला विद्रोह (1921 ई.)
  • अवध के किसानों द्वारा चलाया गया एका आंदोलन (1921-22 ई.)
  • बारदोली सत्याग्रह (1928 ई.)
  • राजस्थान का बिजौलिया आंदोलन
  • बकाश्त किसान संघर्ष (1946-47 ई.)
  • तेभागा आंदोलन (1946-50 ई.)

भारत में शिक्षा का विकास –

प्रारंभ में अंग्रेजों ने भारत में शिक्षा के क्षेत्र में कोई ध्यान नहीं दिया।

  • गवर्नर जनरल वारेन हेंस्टिंग्स ने 1781 ई. में कलकत्ता मदरसा की स्थापना की।
  • इसके बाद 1778 ई. में सर विलियम जोंस ने हेंस्टिंग्स के सहयोग से एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल की स्थापना की।
  • 1791 ई. में ब्रिटिश रेजिडेंट जोनाथन डंकन ने वाराणसी में संस्कृत कॉलेज की स्थापना की।
  • 1800 ई. में कंपनी के असैनिक अधिकारियों की शिक्षार्थ लार्ड वेलेजली द्वारा फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की गई।
  • 1820 ई. में डेविड हेयर ने कलकत्ता में विशप कॉलेज की स्थापना की।
  • इसके बाद राजा राममोहन राय, डेविड हेयर व सर हाईड ईस्ट के संयुक्त प्रयास से कलकत्ता में हिंदू कॉलेज की स्थापना की।
  • 2 फरवरी 1835 ई. को मैकाले ने अपना लेख प्रस्तुत किया। इसी में लिखा था ‘ यूरोप के एक अच्छे पुस्तकालय की अलमारी का एक तख्ता भारत और अरब के संपूर्ण साहित्य से अधिक मूल्यवान है’

शिक्षा संबंधी एक्ट –

1853 के चार्टर एक्ट में भारत में शिक्षा के विकास की जांच के लिए एक समिति का गठन का प्रावधान किया गया। 1854 के ‘चार्ल्स वुड डिस्पैच’ को ‘भारतीय शिक्षा का मैग्नाकार्टा’ कहा जाता है। 1882-83 ई. में लार्ड रिपन ने w. w. हंटर की अध्यक्षता में ‘हंटर कमीशन’ का गठन किया। इसका उद्देश्य 1854 ई. के बाद शिक्षा के क्षेत्र में हुई प्रगति का मूल्यांकन करना था। साथ ही इस आयोग को प्राथमिक शिक्षा के प्रसार के भी उपाय सुझाने थे। लार्ड कर्जन ने 1902 ई. में थामस रैले की अध्यक्षता में ‘विश्वविद्यालय आयोग’ की स्थापना की। 1917 ई. में ‘सैडलर आयोग’ गठित किया गया। 1944 ई. में शिक्षा पर एक वृहत्त योजना बनाई गई जिसे ‘सर्जेंट योजना’ के नाम से जाना जाता है। इतिहास ।

भारत में समाचार पत्रों का विकास –

भारत में समाचार पत्रों का इतिहास भारत में यूरोपियन के आगमन से माना जाता है।

  • पुर्तगालियों ने भारत में 16वीं शताब्दी में प्रिंटिंग प्रेस की शुरुवात की।
  • 1557 ई. में गोवा के पादरियों ने पहली बार भारत में किताब छापी।
  • 1684 ई. में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने बम्बई में अपना पहला प्रिंटिंग प्रेस स्थापित किया।
  • 1780 ईं में जेम्स हिक्की ने भारत में पहला अखबार ‘द् बंगाल गजट’ नाम से छापा।
  • किसी भारतीय द्वारा भारत में छपने वाला पहला अखबार 1816 ई. में गंगाधर भट्टाचार्य का ‘बंगाल गजट’ था।
  • देश में राष्ट्रीय प्रेस की स्थापना का श्रेय राजा राममोहन राय को जाता है।
  • इन्होंने 1821 ई. में संवाद कौमुदी का प्रकाशन शुरु किया।

19वीं शताब्दी में सामाजिक व सांस्कृतिक जागरण –

भारत में हुए इस पुनर्जागरण के कई कारणों में से प्रमुख था भारत में अंग्रेजी सत्ता की स्थापना। इसने भारतीय समाज, राजनीति व संस्कृति को गहराई से प्रभावित किया। परिणामस्वरूप बौद्धिक विकास हेतु अनुकूल परिस्थितियां बनीं। इस दौर में सबसे पहले राजा राममोहन राय ने भारतीय समाज में व्याप्त बुराइयों के विरोध में आवाज उठाई। राजा राममोहन राय को ‘भारतीय राष्ट्रवाद का जनक’, ‘अतीत व भविष्य के मध्य सेतु’, और ‘आधुनिक भारत का जनक’ कहा जाता है। 1826 ई. में जुगलकिशोर ने हिंदी में उदण्ड मार्तण्ड प्रकाशित किया। यह भारत का पहला हिंदी समाचार पत्र था। 1799 ई. में लार्ड वेलेजली ने प्रेस नियंत्रण अधिनियम पारित किया। 1818 ई. में लार्ड हेंस्टिंग्स ने इसे समाप्त कर दिया। चार्ल्स मेटकॉफ को समाचार पत्रों का मुक्तिदाता कहा जाता है। इतिहास ।

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन –

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को मुख्य रुप से तीन चरणों में विभाजित किया गया है –

  • प्रथम चरण (1885-1905 ई.) – भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना।
  • द्वितीय चरण (1905-1919 ई.) – कांग्रेस की परिपक्वता, उग्रवादी गुट का सृजन।
  • तृतीय चरण (1919-1947 ई.) – गाँधी युग।

कांग्रेस की स्थापना – इतिहास

एक अवकाश प्राप्त अधिकारी एलन अक्टोवियन ह्यूम ने 1884 ई. में ‘भारतीय राष्ट्रीय संघ’ की स्थापना की थी। साल 1885 में इसका अधिवेशन पुणे में होने को था, परंतु वहाँ अकाल पड़ गया। इस कारण बम्बई में इसका आयोजन करना तय हुआ। 28 दिसंबर 1885 ई. को इसका पहला अधिवेशन गोकुलदास तेजपाल संस्कृत विद्यालय, बम्बई में हुआ था। दादाभाई नौरोजी के कहने पर इसी सम्मेलन में इसका नाम बदलकर ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ कर दिया गया। इसी कारण भारतीय राष्ट्रीय संघ को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अग्रदूत कहा जाता है। इतिहास ।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पहले अध्यक्ष व्योमेश चंद्र बनर्जी थे। कांग्रेस के पहले अधिवेशन में सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने हिस्सा नहीं लिया था। कांग्रेस के पहले अधिवेशन में 72 लोगों ने, दूसरे में 343 लोगों ने, तीसरे में 607 ने, चौथे में 1248 ने भाग लिया था। लाला लाजपतराय ने 1916 ई. में यंग इंडिया में एक लेख के माध्यम से कांग्रेस को लार्ड डफरिन के मस्तिष्क की उपज बताया। बंकिम चंद्र चटर्जी ने कांग्रेस के लोगों को पदों का भूखा बताया। कांग्रेस के प्रथम चार अधिवेशन स्थल क्रमश बम्बई, कलकत्ता, मद्रास, इलाहाबाद है। कांग्रेस के प्रथम चार अधिवेशनों के अध्यक्ष क्रमश व्योमेश चंद्र बनर्जी, दादाभाई नौरोजी, बदरुद्दीन तैयबजी, जॉर्ज यूले थे। इतिहास।

1947 के बाद का इतिहास

भारत की स्वतंत्रता के बाद सबसे बड़ी चुनौती रियासतों के भारत में विलय की थी।

क्योंकि अंग्रेजों द्वारा दी गई छूट के तहत बहुत सी रियासतों ने स्वतंत्र अस्तित्व के विकल्प को चुना।

अतः अब इन सभी रियासतों को भारत में मिलाकर अखण्ड भारत का निर्माण करना था।

इस काम के लिए लौह पुरुष बल्लभ भाई पटेल और पी. पी. मेनन का योगदान सराहनीय है।

इन्होंने हर तरह से इन रियासतों को भारत में मिलाने के लिए जी जान लगा दिया।

साथ ही आजादी के बाद देश को संविधान निर्माण की भी आवश्यकता थी।

इसके लिए 9 दिसंबर 1946 को संविधान सभा की पहली बैठक की गई ।

इसके ठीक 2 साल 11 माह 18 दिन बाद संविधान तैयार हो गया।

भारतीय संविधान को 26 जनवरी 1950 को लागू कर गणतंत्र की स्थापना की गई।

गुलाम वंश या मामलूक वंश

मध्यकालीन भारत में 1206 ई. से 1526 ई. तक शासन करने वाले 5 वंशों को दिल्ली सल्तनत कहा जाता है। ‘दिल्ली सल्तनत’ के अंतर्गत गुलाम वंश, खिलजी वंश, तुगलक वंश, सैय्यद वंश, लोदी वंश का इतिहास आता है। इस लेख में गुलाम वंशकी जानकारी दी गई है।

गुलाम वंश या मामलूक वंश

दिल्ली सल्तनत पर 1206 ई. से 1290 ई. तक जिस वंश ने शासन किया उसे मामलूक या गुलाम वंश कहा जाता है। इसके अंतर्गत कुल तीन राजवंश कुत्बी वंश, शम्शी वंश, व बलबनी वंश आते हैं। हालांकि गुलाम वंश के सभी शासक गुलाम नहीं थे।

गुलाम वंश के शासक

मामलूक वंश या गुलाम वंश के शासक निम्मलिखित हैं –

  • कुतुबुद्दीन ऐबक
  • आरामशाह
  • इल्तुतमिश
  • रुकनुद्दीन फिरोज
  • रजिया सुल्तान
  • बहरामशाह
  • अलाउद्दीन मसूदशाह
  • नासिरुद्दीन समूदशाह
  • बलबन
  • कैकुबाद
  • क्यूमर्स

कुतुबुद्दीन ऐबक (1206-10 ई.)

मुहम्मद गोरी का दास कुतुबुद्दीन ऐबक एक तुर्क था। इसके माता पिता ने बचपन में ही इसे निशापुर के काजी अब्दुलअजीज कोकी को बेच दिया था। काजी की मृत्यु के बाद उनके पुत्रों ने इसे गोरी को बेच दिया। गोरी ने इसे अमीर ए आखूर के पद पर तैनात किया। गोरी ने इसे लाखबख्श, हातिम द्वितीय व सिपहसालार कहा। यह गुलाम वंश का पहला शासक बना।

सत्ता के लिए ऐबक का संघर्ष –

गोरी के कोई पुत्र न था। उसकी मृत्यु के बाद उसके तीन गुलाम ऐबक, नासिरुद्दीन कुबाचा, ताजुद्दीन यल्दौज उसके उत्तराधिकार के लिए प्रतिद्वंदी बने। कुबाचा को सिंध प्रांत और यल्दौज को गजनी का क्षेत्र मिला। ऐबक ने लाहौर को अपनी राजधानी बनाया और वहीं से शासन करता रहा। शासक बनने के बाद ऐबक से अपनी बहन का विवाह कुबाचा से कर दिया। इससे कुबाचा का विरोध शांत हो गया। परंतु यल्दौज का खतरा बना रहा। जब ख्वारिज्म के सुल्तान ने गजनी पर हमला कर दिया तो यल्दौज भागकर पंजाब आ गया। यहाँ पर ऐबक ने इसे हरा दिया। इस समय गजनी का सिंहासन खाली था। गजनी की जनता ने ऐबक को आमंत्रित किया परंतु 40 दिन बाद ही वहाँ विद्रोह हो गया। अतः ऐबक बापस लाहौर आ गया। यल्दौज पुनः गजनी का शासक बन गया।

शासनकाल –

इसने अपने काल में न तो खुतबा पढ़वाया, न सिक्के जारी किए और न ही सुल्तान की उपाधि धारण की। 1209 ई. में गौर प्रदेश के सुल्तान महमूद से ऐबक ने दासतामुक्ति पत्र प्राप्त किया। महमूद ने हसन निजामी के हाथों एक छत्र प्रतीक स्वरूप भेजा।

ऐबक की उपलब्धियां व प्रमुख व्यक्ति –

ऐबक ने ही दिल्ली में कुतुबमीनार बनवाना प्रारंभ किया। दिल्ली में ‘कुव्वत उल इस्लाम मस्जिद’ का निर्माण कराया। अजमेर में ढाई दिन का झोपड़ा नामक मस्जिद बनवाई। ताजुल मासिर का लेखक हसन निजामी ऐबक के ही दरबार में रहता था। फख्र-ए-मुदब्बिर भी ऐबक के ही दरबार में रहता था। फख्र-ए-मुदब्बिर ही ऐबक का पहला वजीर भी था।

मृत्यु –

1210 ई. में चौगान (हार्स पोलो) खेलते वक्त घोड़े से गिरने के कारण ऐबक की मृत्यु हो गई।

इसे लाहौर में दफनाया गया।

आरामशाह (1210 ई.)

ऐबक की मृत्यु के बाद आरामशाह शासक बना। कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह ऐबक का पुत्र था।

परंतु ऐबक के दरबारी लेखक के अनुसार ऐबक की सिर्फ तीन पुत्रियां ही थीं।

वहीं मुगल कालीन आइने अकबरी का लेखक अबुल फजल इसे ऐबक का भाई बताता है।

यह सिर्फ 8 माह ही शासन कर सका।

इसके बाद कुबाचा ने लाहौर पर अधिकार कर लिया।

इल्तुतमिश (1210-36 ई.)

इल्तुतमिश दिल्ली का पहला सुल्तान था। इसने अपनी पुत्री रजिया को…Read more

रुकनुद्दीन फिरोज (1236 ई.)

इल्तुतमिश के अपने पुत्री को उत्तराधिकारी घोषित करने के वाबजूद तुर्की अमीरों ने उसे शासिका स्वीकार नहीं किया। इल्तुतमिश का पुत्र रुकनिद्दीन फिरोज अगला शासक बना। इसके शासनकाल में सत्ता की प्रमुख इसकी माता शाहतुर्कान बनीं। उसी के षणयंत्रों के फलस्वरूप रुकनुद्दीन को सत्ता प्राप्त हुई थी। इसके समय गयासुद्दीन मुहम्मदशाह ने अवध में विद्रोह कर दिया। इसके अतिरिक्त लाहौर व मुल्तान के इक्तादारों ने भी विद्रोह कर दिया। वजीर जुनैदी ने भी विद्रोहियों का साथ दिया। फिरोज विद्रोह को दबाने कुहराम गया। यहाँ पर इसे बंदी बना लिया गया।

रजिया द्वारा न्याय की मांग –

इसी समय रजिया जुमा (शुक्रवार) की नमाज के दौरान लाल वस्त्रों में जनता के बीच उपस्थित हुई। अपने पिता की अंतिम इच्छा (रजिया को सुल्तान बनाए जाने की) याद दिलाई। लाल वस्त्र न्याय की मांग के प्रतीक थे। अतः दिल्ली की जनता ने रजिया को सुल्तान मानकर तख्त पर बिठा दिया। इस समय सिर्फ वजीर जुनैदी ने ही रजिया के सिंहासनारोहण का विरोध किया।

रजिया सुल्तान (1236-40 ई.)

सुल्तान बनने के बाद रजिया ने ख्वाजा मुहाजबुद्दीन को सल्तनत का वजीर नियुक्त किया। यह दिल्ली सल्तनत की प्रथम महिला शासिका बनीं। रजिया ने स्त्री के वस्त्र त्याग दिए और पुरुषों के वस्त्र धारण करने लगी। इसकी माँ का नाम कुतुब बेगम (तुर्कमान खातून) था। इससे पहले ग्वालियर अभियान के दौरान इल्तुतमिश ने रजिया को दिल्ली का प्रभारी नियुक्त किया था। अभियान से बापस आकर उसने रजिया को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। साथ ही सिक्कों पर उसका नाम अंकित करवाया।

रजिया का शासन –

रजिया के शासनकाल में किरामातियों व अहमदियों ने तुर्क नूरुद्दीन के नेतृत्व में विद्रोह किया। 1238 ई. में गजनी और बामियान ने रजिया से मंगोलों के विरुद्ध सहायता मांगी। रजिया ने बरन की आय देने का वादा किया परंतु सैन्य सहायता देने से इनकार कर दिया। इस तरह इसने मंगलों के आक्रमण की संभावना को समाप्त कर दिया। सत्ता में तुर्की अमीरों के एकाधिकार को समाप्त करने के लिए रजिया ने जमालुद्दीन याकूत को अमीर ए आखूर नियुक्त किया। यह एक अबीसीनियाई हब्सी था। रजिया के समय ही इल्तुतमिश द्वारा गठित चालीसा दल में संघर्ष की शुरुवात हो गई।

विरोधी व षणयंत्रकारी –

तुर्की अमीर दिल्ली में रजिया को सत्ता से बेदखल नहीं कर सकते थे। क्योंकि रजिया को दिल्ली की जनता का समर्थन प्राप्त था। इसलिए उन्होंने इसे दिल्ली से बाहर निकालने का षणयंत्र रचा। रजिया के विरुद्ध षणयंत्रकारियों में सबसे प्रमुख था इख्तियारुद्दीन ऐतगीन। इसे रजिया ने अमीर-ए-हाजिब का पद दिया था। इसके अतिरिक्त भटिंडा का गवर्नर अल्तूनिया दूसरा प्रमुख विरोधी था। पहला विद्रोह लाहौर के इक्तादार कबीर खाँ ने किया। इसके बाद अल्तूनिया ने विद्रोह किया। रजिया विद्रोह को दबाने गई। अल्तूनिया ने याकूब को मार दिया और रजिया को तबरहिंद के किले में कैद कर लिया।

इधर दिल्ली में तख्त को खाली पाकर बहरामशाह को गद्दी पर बिठा दिया। इसकी खबर मिलते ही रजिया ने अल्तूनिया से विवाह कर लिया। अब रजिया व अल्तूनिया की संयुक्त सेना ने दिल्ली की संगठित सेना से युद्ध किया। इसमें रजिया को हार का सामना करना पड़ा। अक्टूबर 1240 ई. में कैथल के निकट डाकुओं ने रजिया व अल्तूनिया की हत्या कर दी।

रजिया के पतन का कारण –
  • यद्यपि रजिया में एक योग्य शासिका के समस्त गुण विद्यमान थे।
  • परंतु उसका स्त्री होना उन सभी गुणों पर भारी पड़ गया।
  • तुर्की अमीरों को एक स्त्री द्वारा शासित होना शर्मनाक महसूस होता था।
  • यही कारण था कि वे इसे सत्ता से बेदखल करने की सदैव लालसा रखते थे।
  • इसके लिए वे षणयंत्र करते रहते थे।

मुईजुद्दीन बहरामशाह (1240-42 ई.)

जब अल्तूनिया ने रजिया को तबरहिंद के किले में कैद कर लिया। उसी वक्त दिल्ली का सिंहासन खाली पाकर अमीरों ने बहरामशाह को गद्दी पर बिठा दिया। इसने ‘नायब-ए-ममलिकात’ के नए पद का सृजन किया। इस पद पर सबसे पहले इख्तियारुद्दीन ऐतगीन को नियुक्त किया। बाद में ऐतगीन की बढ़ती शक्ति देख बहरामशाह ने इसकी हत्या करवा दी। परंतु फिर भी सारी शक्ति इसे प्राप्त न हो सकी। बाद में वजीर मुहाजबुद्दीन ने बहरामशाह की हत्या करवा दी।

अलाउद्दीन मसूदशाह (1242-46 ई.)

यह इल्तुतमिश के पुत्र फिरोजशाह का पुत्र था। इसने मुहाजबुद्दीन को हटाकर अबूबक्र को सल्तनत का वजीर नियुक्त किया। इसी के सिक्कों पर सर्वप्रथम बगदाद के अंतिम अब्बासी खलीफा अल मुस्तसीम का नाम खुदा। इसने नायब का पद कुतुबुद्दीन हसन को दिया। इसी समय बलबन को अमीर ए हाजिब का पद प्राप्त हुआ। यहीं से बलबन ने शक्ति अर्जित करना प्रारंभ किया। इस समय बलबन ने अफवाह उड़ा दी कि मंगोलों व राजपूतों का दिल्ली पर हमला होने वाला है। सबका ध्यान इस ओर भटकाकर उसने नासिरुद्दीन महमूद व उसकी माँ के साथ मिलकर मसूदशाह को गद्दी से हटाने का षणयंत्र किया। मसूदशाह को सत्ता से बेदखल कर जेल में डाल दिया। जेल में ही मसूदशाह की मृत्यु हो गई।

नासिरुद्दीन महमूद (1246-65 ई.)

अब अमीरों ने इल्तुतमिश के 17 वर्षीय पौत्र नासिरुद्दीन महमूद को गद्दी पर बिठाया। यह शम्सी वंश का अंतिम सुल्तान था। मिनहाज उस सिराज की ‘तबकात ए नासिरी’ उसके इसी आश्रयदाता को समर्पित है। 1249 ई. में बलबन ने अपनी पुत्री हुजैदा का विवाह नासिरुद्दीन से कर दिया। नासिरुद्दीन ने बलबन को नायब का पद दिया। मंगोल आक्रमण को विफल करने के लिए बलबन को उलूग की उपाधि दी। इसी के शासनकाल में मंगोल हलाकू के दूत 1260 ई. में दिल्ली आए। 1253 ई. में मिन्हाज उस सिराज को मुख्य काजी के पद से हटा दिया गया। इसके स्थान पर शमसुद्दीन को मुख्य काजी नियुक्त किया गया। 1265 ई. में नासिरुद्दीन की मृत्यु हो गई। यह दिल्ली सल्तनत का एकमात्र सुल्तान था जिसकी सिर्फ एक पत्नी थी। इसे दिल्ली का आदर्श सुल्तान कहा जाता है।

नोट – इल्तुतमिश के पुत्र का नाम नासिरुद्दीन महमूद था। परंतु उसकी मृत्यु 1229 ई. में ही हो गई। नासिरुद्दीन की मृत्यु के बाद उसका पुत्र पैदा हुआ। इल्तुतमिश ने इसका नाम अपने उसी पुत्र के नाम पर नासिरुद्दीन महमूद रख दिया। अर्थात इल्तुतमिश के पुत्र व पौत्र दोनों का ही नाम नासिरुद्दीन महमूद था।

बलबन (1266-87 ई.)

बलबन और उसके छोटे भाई किश्लू खाँ को बचपन में ही मंगोल पकड़कर ले गए थे। मंगोलों ने इन्हें दास बनाकर जलालुद्दीन बसरे के हाथ बेच दिया। इल्तुतमिश ने ग्वालियर विजय के बाद इसे दिल्ली के बाजार से खरीदा। तभी ये दोनों भाई पुनः मिल गए।

विभिन्न पदों पर बलबन की नियुक्ति –

बलबन ने कुल सात पदों पर कार्य करते हुए सुल्तान का पद प्राप्त किया। बरनी इसके बारे में कहता है, ‘वह मलिक से खान और खान से सुल्तान हो गया।’

  • इल्तुतमिश ने इसे चेहलगानी दल का सदस्य बनाया। फिर इसे खासतार (अंगरक्षकों का प्रधान) नियुक्त किया।
  • रजिया ने इसे अमीर-ए-शिकार पद पर नियुक्त किया।
  • बहरामशाह ने इसे अमीर-ए-आखूर (घुड़साला का प्रमुख) नियुक्त किया।
  • मसूदशाह ने इसे अमीर-ए-हाजिब बनाया।
  • नासिरुद्दीन महमूद ने इसे नायब के पद पर नियुक्त किया।

बलबन का राज्यारोहण –

1266 ई. में बलबन गियासुद्दीन की उपाधि के साथ शासक बना। शासक बनने के बाद भी इसे तमाम समस्याओं का सामना करना पड़ा। इनमें प्रमुख थे चालीसा दल के अमीर और विद्रोही। विद्रोहियों के प्रति बलबन ने रक्त व युद्ध की नीति अपनाई। मेव जनजाति के लोगों का दिल्ली के दोआब क्षेत्र में भयंकर आतंक फैला हुआ था। सबसे पहले बलबन ने मेवों का दमन किया। फिर अवध के विद्रोह को दबाया। इसने स्वयं को नैयबते खुदाईजिल्ल-ए-इलाही कहा। दिल्ली के चारो कोनों में चार किले बनवाए। इन पर अफगान अधिकारियों की नियुक्ति की। बलबन का काल शासन सुदृढ़ीकरण का था, साम्राज्य विस्तार का नहीं। इसने खुद को ‘फिरदौसी की रचना शाहनामा‘ के नायक अफरासियाब का वंशज बताया।

बलबन के कार्य –

  • ईरानी परंपरा सिजदा व पैबोस (पैर चूमना) की शुरुवात की। ईरानी त्योहार नौरोज की शुरुवात की।
  • बलबन ने ही सबसे पहले सैन्य विभाग (दीवान-ए-अर्ज) का गठन किया।
  • इमादुलमुल्क रावत को पहला दीवान ए अर्ज नियुक्त किया गया।
  • 1279 ई. में शिक(जिला) का विकास किया। इस पर शिकदार की नियुक्ति की।
  • बलबन ने सभी इक्ताओं में बरीद(गुप्तचर) की नियुक्ति की।
  • इसने स्वयं शराब त्याग दी और सामाजिक सभाओं में नृत्य, संगीत व मद्यपान पर प्रतिबंध लगा दिया।
  • दरबार में हंसी-मजाक बंद कर दिया।
  • रक्त की शुद्धता व कुल की उच्चता पर बल दिया।

बंगाल की समस्या –

1254 ई. में ही अर्सला खाँ के नेतृत्व में बंगाल ने स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी। सुल्तान बनने के बाद बलबन ने अपने गुलाम तुगरिल खां को दक्षिण बंगाल के अपने अधिकार वाले क्षेत्र का इक्तादार बनाया। 1279 ई. में तुगरिल खाँ ने भी विद्रोह कर दिया। यह दास का मालिक से विद्रोह करने का पहला साक्ष्य है। बलबन ने अवध के इक्तादार अमीन खाँ को विद्रोह का दमन करने के लिए भेजा। अमीन खाँ इसमें असफल रहा। तो बलबन ने अमीन खाँ को मरवा कर अयोध्या के द्वार पर लटकवा दिया। इसके बाद अल्पतगीन मुएदराज को बंगाल भेजा। यह भी असफल रहा। तो बलबन ने इसे दिल्ली के द्वार पर फाँसी पर लटकवा दिया।

इसके बाद बलबन अपने पुत्र को साथ लेकर स्वयं बंगाल अभियान पे गया। दिल्ली का अधिभार वह अपने कोतवाल फखरुद्दीन को सौंप गया। बलबन के आने की खबर पाते ही तुगरिल ओडिशा के जंगलों में जा छिपा। बलबन के सैनिकों ने उसे खोजकर मार डाला। बलबन ने पुत्र बुगराखाँ को बंगाल का सूबेदार नियुक्त कर दिया।

मंगोल समस्या –

बलबन ने उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत की किलेबंदी की। ऐसा करने वाला यह दिल्ली का पहला सुल्तान था। वहाँ पर पहले अपने चचेरे भाई शेर खाँ को नियुक्त किया। बलबन का ज्येष्ठ पुत्र मुहम्मद खाँ 1286 ई. में मंगोलों (तमर खाँ) से लड़ते हुए मारा गया। अमीर खुशरो ने शहजादा मुहम्मद के ही संरक्षण में अपने साहित्यिक जीवन की शुरुवात की थी।

चालीसा दल का दमन

बनबन ने सबसे पहले चालीसा दल का दमन किया। क्योंकि बलबन स्वयं पहले चालीसा दल का सदस्य था। वह तुर्क चेहलगानी के अमीरों की चालों व षणयंत्रों से भलीभांति परिचित था। क्योंकि यह दल इनता अधिक शक्तिशाली हो चुका था कि सुल्तानों पर नियंत्रण रखने लगा था। इल्तुतमिश के बाद 30 वर्षों में इस दल ने उसी के वंश के 5 शासकों को बनाया और बर्वाद किया। इसके सदस्य बलबन को भी कभी भी चुनौती दे सकते थे। बलबन को लगा कि चालीसा दल के अंत के बिना सत्ता की समस्त शक्तियाँ प्राप्त करना असंभव है। बलबन ने इसके सदस्यों को एक-एक कर मरवा दिया। तुगरिल खाँ, खेरखाँ, मलिक बकबक, हैबत खाँ, अमीन खाँ चालीसा दल के कुछ प्रमुख सदस्य थे।

जागीरदारी व्यवस्था –

सैनिकों को उनकी सैन्य सेवा के बदले जागीरें दे दी जाती थीं। ये जागीरें उनके बाद भी इनके वंशजों के पास रहती थीं। इससे बलबन को राजस्व घाटा होने लगा। अतः उसने इन्हें बापस लेने की घोषणा कर दी। इनसे प्रभावित वृद्ध व विधवाएं दिल्ली सड़कों पर उतर आए। बलबन ने अपने मित्र व दिल्ली के कोतवाल की सलाह पर इस योजना को बापस ले लिया। बलबन के काल की यहीं एकमात्र नीति असफल रही। 

बलबन की मृत्यु –

1286 ई. में पुत्र मुहम्मद की मृत्यु के एक वर्ष बाद 1287 ई. में पुत्र वियोग में बलबन की भी मृत्यु हो गई। बरनी कहता है, ”इसकी मृत्यु पर लोगों ने अपने वस्त्र फाड़ दिए और 40 दिन तक शोक मनाया।”

बलबन के बाद –

  • बलबन अपने बाद अपने दूसरे पूत्र बुगरा खाँ को शासक बनाना चाहता था।
  • परंतु वह बंगाल से न आ सका।
  • तो बलबन ने अपने पुत्र मुहम्मद के पुत्र कैखुसरो को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।
  • परंतु बलबन की मृत्यु के बाद दादबेग निजामुद्दीन ने कैखुशरो को शासक नहीं बनने दिया।
  • उसने बुगरा खाँ के पुत्र कैकुबाद द्वारा कैखुशरो की हत्या करवा दी।
  • इस तरह बलबन के बाद कैकुबाद शासक और निजामुद्दीन उसका नायब बना।

कैकुबाद (1287-90 ई.)

कैकुबाद बलबन का पौत्र था। ये बलबन के बाद दिल्ली सल्तनत का अगला सुल्तान बना। निजामुद्दीन इसका नायब बना। पिता के जीवित रहते पुत्र का शासक बनने का यह पहला उदाहरण है। राज्यारोहण के दो साल बाद 1289 ई. में बुगरा खाँ अपने पुत्र से मिलने आया। इसका उल्लेख अमीर खुसरो ने अपनी रचना ‘किरान उस सादेन’ में किया है। जब पिता बुगरा खाँ ने अपने सुल्तान बेटे को सिजदा व पैबोस किया। तो कैकुबाद अत्यंत लज्जित हुआ और पिता के चरणों में गिर गया। बुगरा खां ने कैकुबाद को अपने नायब से सावधान रहने को कहा। कैकुबाद दिल्ली आया और अपने नायब निजामुद्दीन को मार डाला। परंतु कुछ समय बाद कैकुबाद लकवाग्रस्त हो गया। फिरोज खिलजी के समर्थक तरकेश ने 1290 ई. में कैकुबाद को चादर में लपेटकर यमुना में फेंक दिया।

क्यूमर्स (1290 ई.)

कैकुबाद के लकवाग्रस्त होने के बाद शासन चलाने के लिए ढाई वर्षीय बालक क्यूमर्स को शासक बनाया गया।

यह गुलाम वंश का अंतिम शासक था।

कैकुबाद ने फिरोज खिलजी नामक एक अहम अधिकारी को बरन क्षेत्र का राज्यपाल नियुक्त किया।

इसे आरिज ए मुमालिक का पद दिया।

आगे चलकर इसी फिरोज खिलजी ने जलालुद्दीन खिलजी के नाम से शासक बन खिलजी वंश की स्थापना की।

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