मध्यकालीन भारत में 1206 ई. से 1526 ई. तक शासन करने वाले 5 वंशों को दिल्ली सल्तनत कहा जाता है। ‘दिल्ली सल्तनत’ के अंतर्गत गुलाम वंश, खिलजी वंश, तुगलक वंश, सैय्यद वंश, लोदी वंश का इतिहास आता है। इस लेख में गुलाम वंशकी जानकारी दी गई है।
गुलाम वंश या मामलूक वंश
दिल्ली सल्तनत पर 1206 ई. से 1290 ई. तक जिस वंश ने शासन किया उसे मामलूक या गुलाम वंश कहा जाता है। इसके अंतर्गत कुल तीन राजवंश कुत्बी वंश, शम्शी वंश, व बलबनी वंश आते हैं। हालांकि गुलाम वंश के सभी शासक गुलाम नहीं थे।
गुलाम वंश के शासक
मामलूक वंश या गुलाम वंश के शासक निम्मलिखित हैं –
- कुतुबुद्दीन ऐबक
- आरामशाह
- इल्तुतमिश
- रुकनुद्दीन फिरोज
- रजिया सुल्तान
- बहरामशाह
- अलाउद्दीन मसूदशाह
- नासिरुद्दीन समूदशाह
- बलबन
- कैकुबाद
- क्यूमर्स
कुतुबुद्दीन ऐबक (1206-10 ई.)
मुहम्मद गोरी का दास कुतुबुद्दीन ऐबक एक तुर्क था। इसके माता पिता ने बचपन में ही इसे निशापुर के काजी अब्दुलअजीज कोकी को बेच दिया था। काजी की मृत्यु के बाद उनके पुत्रों ने इसे गोरी को बेच दिया। गोरी ने इसे अमीर ए आखूर के पद पर तैनात किया। गोरी ने इसे लाखबख्श, हातिम द्वितीय व सिपहसालार कहा। यह गुलाम वंश का पहला शासक बना।
सत्ता के लिए ऐबक का संघर्ष –
गोरी के कोई पुत्र न था। उसकी मृत्यु के बाद उसके तीन गुलाम ऐबक, नासिरुद्दीन कुबाचा, ताजुद्दीन यल्दौज उसके उत्तराधिकार के लिए प्रतिद्वंदी बने। कुबाचा को सिंध प्रांत और यल्दौज को गजनी का क्षेत्र मिला। ऐबक ने लाहौर को अपनी राजधानी बनाया और वहीं से शासन करता रहा। शासक बनने के बाद ऐबक से अपनी बहन का विवाह कुबाचा से कर दिया। इससे कुबाचा का विरोध शांत हो गया। परंतु यल्दौज का खतरा बना रहा। जब ख्वारिज्म के सुल्तान ने गजनी पर हमला कर दिया तो यल्दौज भागकर पंजाब आ गया। यहाँ पर ऐबक ने इसे हरा दिया। इस समय गजनी का सिंहासन खाली था। गजनी की जनता ने ऐबक को आमंत्रित किया परंतु 40 दिन बाद ही वहाँ विद्रोह हो गया। अतः ऐबक बापस लाहौर आ गया। यल्दौज पुनः गजनी का शासक बन गया।
शासनकाल –
इसने अपने काल में न तो खुतबा पढ़वाया, न सिक्के जारी किए और न ही सुल्तान की उपाधि धारण की। 1209 ई. में गौर प्रदेश के सुल्तान महमूद से ऐबक ने दासतामुक्ति पत्र प्राप्त किया। महमूद ने हसन निजामी के हाथों एक छत्र प्रतीक स्वरूप भेजा।
ऐबक की उपलब्धियां व प्रमुख व्यक्ति –
ऐबक ने ही दिल्ली में कुतुबमीनार बनवाना प्रारंभ किया। दिल्ली में ‘कुव्वत उल इस्लाम मस्जिद’ का निर्माण कराया। अजमेर में ढाई दिन का झोपड़ा नामक मस्जिद बनवाई। ताजुल मासिर का लेखक हसन निजामी ऐबक के ही दरबार में रहता था। फख्र-ए-मुदब्बिर भी ऐबक के ही दरबार में रहता था। फख्र-ए-मुदब्बिर ही ऐबक का पहला वजीर भी था।
मृत्यु –
1210 ई. में चौगान (हार्स पोलो) खेलते वक्त घोड़े से गिरने के कारण ऐबक की मृत्यु हो गई।
इसे लाहौर में दफनाया गया।
आरामशाह (1210 ई.)
ऐबक की मृत्यु के बाद आरामशाह शासक बना। कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह ऐबक का पुत्र था।
परंतु ऐबक के दरबारी लेखक के अनुसार ऐबक की सिर्फ तीन पुत्रियां ही थीं।
वहीं मुगल कालीन आइने अकबरी का लेखक अबुल फजल इसे ऐबक का भाई बताता है।
यह सिर्फ 8 माह ही शासन कर सका।
इसके बाद कुबाचा ने लाहौर पर अधिकार कर लिया।
इल्तुतमिश (1210-36 ई.)
इल्तुतमिश दिल्ली का पहला सुल्तान था। इसने अपनी पुत्री रजिया को…Read more
रुकनुद्दीन फिरोज (1236 ई.)
इल्तुतमिश के अपने पुत्री को उत्तराधिकारी घोषित करने के वाबजूद तुर्की अमीरों ने उसे शासिका स्वीकार नहीं किया। इल्तुतमिश का पुत्र रुकनिद्दीन फिरोज अगला शासक बना। इसके शासनकाल में सत्ता की प्रमुख इसकी माता शाहतुर्कान बनीं। उसी के षणयंत्रों के फलस्वरूप रुकनुद्दीन को सत्ता प्राप्त हुई थी। इसके समय गयासुद्दीन मुहम्मदशाह ने अवध में विद्रोह कर दिया। इसके अतिरिक्त लाहौर व मुल्तान के इक्तादारों ने भी विद्रोह कर दिया। वजीर जुनैदी ने भी विद्रोहियों का साथ दिया। फिरोज विद्रोह को दबाने कुहराम गया। यहाँ पर इसे बंदी बना लिया गया।
रजिया द्वारा न्याय की मांग –
इसी समय रजिया जुमा (शुक्रवार) की नमाज के दौरान लाल वस्त्रों में जनता के बीच उपस्थित हुई। अपने पिता की अंतिम इच्छा (रजिया को सुल्तान बनाए जाने की) याद दिलाई। लाल वस्त्र न्याय की मांग के प्रतीक थे। अतः दिल्ली की जनता ने रजिया को सुल्तान मानकर तख्त पर बिठा दिया। इस समय सिर्फ वजीर जुनैदी ने ही रजिया के सिंहासनारोहण का विरोध किया।
रजिया सुल्तान (1236-40 ई.)
सुल्तान बनने के बाद रजिया ने ख्वाजा मुहाजबुद्दीन को सल्तनत का वजीर नियुक्त किया। यह दिल्ली सल्तनत की प्रथम महिला शासिका बनीं। रजिया ने स्त्री के वस्त्र त्याग दिए और पुरुषों के वस्त्र धारण करने लगी। इसकी माँ का नाम कुतुब बेगम (तुर्कमान खातून) था। इससे पहले ग्वालियर अभियान के दौरान इल्तुतमिश ने रजिया को दिल्ली का प्रभारी नियुक्त किया था। अभियान से बापस आकर उसने रजिया को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। साथ ही सिक्कों पर उसका नाम अंकित करवाया।
रजिया का शासन –
रजिया के शासनकाल में किरामातियों व अहमदियों ने तुर्क नूरुद्दीन के नेतृत्व में विद्रोह किया। 1238 ई. में गजनी और बामियान ने रजिया से मंगोलों के विरुद्ध सहायता मांगी। रजिया ने बरन की आय देने का वादा किया परंतु सैन्य सहायता देने से इनकार कर दिया। इस तरह इसने मंगलों के आक्रमण की संभावना को समाप्त कर दिया। सत्ता में तुर्की अमीरों के एकाधिकार को समाप्त करने के लिए रजिया ने जमालुद्दीन याकूत को अमीर ए आखूर नियुक्त किया। यह एक अबीसीनियाई हब्सी था। रजिया के समय ही इल्तुतमिश द्वारा गठित चालीसा दल में संघर्ष की शुरुवात हो गई।
विरोधी व षणयंत्रकारी –
तुर्की अमीर दिल्ली में रजिया को सत्ता से बेदखल नहीं कर सकते थे। क्योंकि रजिया को दिल्ली की जनता का समर्थन प्राप्त था। इसलिए उन्होंने इसे दिल्ली से बाहर निकालने का षणयंत्र रचा। रजिया के विरुद्ध षणयंत्रकारियों में सबसे प्रमुख था इख्तियारुद्दीन ऐतगीन। इसे रजिया ने अमीर-ए-हाजिब का पद दिया था। इसके अतिरिक्त भटिंडा का गवर्नर अल्तूनिया दूसरा प्रमुख विरोधी था। पहला विद्रोह लाहौर के इक्तादार कबीर खाँ ने किया। इसके बाद अल्तूनिया ने विद्रोह किया। रजिया विद्रोह को दबाने गई। अल्तूनिया ने याकूब को मार दिया और रजिया को तबरहिंद के किले में कैद कर लिया।
इधर दिल्ली में तख्त को खाली पाकर बहरामशाह को गद्दी पर बिठा दिया। इसकी खबर मिलते ही रजिया ने अल्तूनिया से विवाह कर लिया। अब रजिया व अल्तूनिया की संयुक्त सेना ने दिल्ली की संगठित सेना से युद्ध किया। इसमें रजिया को हार का सामना करना पड़ा। अक्टूबर 1240 ई. में कैथल के निकट डाकुओं ने रजिया व अल्तूनिया की हत्या कर दी।
रजिया के पतन का कारण –
- यद्यपि रजिया में एक योग्य शासिका के समस्त गुण विद्यमान थे।
- परंतु उसका स्त्री होना उन सभी गुणों पर भारी पड़ गया।
- तुर्की अमीरों को एक स्त्री द्वारा शासित होना शर्मनाक महसूस होता था।
- यही कारण था कि वे इसे सत्ता से बेदखल करने की सदैव लालसा रखते थे।
- इसके लिए वे षणयंत्र करते रहते थे।
मुईजुद्दीन बहरामशाह (1240-42 ई.)
जब अल्तूनिया ने रजिया को तबरहिंद के किले में कैद कर लिया। उसी वक्त दिल्ली का सिंहासन खाली पाकर अमीरों ने बहरामशाह को गद्दी पर बिठा दिया। इसने ‘नायब-ए-ममलिकात’ के नए पद का सृजन किया। इस पद पर सबसे पहले इख्तियारुद्दीन ऐतगीन को नियुक्त किया। बाद में ऐतगीन की बढ़ती शक्ति देख बहरामशाह ने इसकी हत्या करवा दी। परंतु फिर भी सारी शक्ति इसे प्राप्त न हो सकी। बाद में वजीर मुहाजबुद्दीन ने बहरामशाह की हत्या करवा दी।
अलाउद्दीन मसूदशाह (1242-46 ई.)
यह इल्तुतमिश के पुत्र फिरोजशाह का पुत्र था। इसने मुहाजबुद्दीन को हटाकर अबूबक्र को सल्तनत का वजीर नियुक्त किया। इसी के सिक्कों पर सर्वप्रथम बगदाद के अंतिम अब्बासी खलीफा अल मुस्तसीम का नाम खुदा। इसने नायब का पद कुतुबुद्दीन हसन को दिया। इसी समय बलबन को अमीर ए हाजिब का पद प्राप्त हुआ। यहीं से बलबन ने शक्ति अर्जित करना प्रारंभ किया। इस समय बलबन ने अफवाह उड़ा दी कि मंगोलों व राजपूतों का दिल्ली पर हमला होने वाला है। सबका ध्यान इस ओर भटकाकर उसने नासिरुद्दीन महमूद व उसकी माँ के साथ मिलकर मसूदशाह को गद्दी से हटाने का षणयंत्र किया। मसूदशाह को सत्ता से बेदखल कर जेल में डाल दिया। जेल में ही मसूदशाह की मृत्यु हो गई।
नासिरुद्दीन महमूद (1246-65 ई.)
अब अमीरों ने इल्तुतमिश के 17 वर्षीय पौत्र नासिरुद्दीन महमूद को गद्दी पर बिठाया। यह शम्सी वंश का अंतिम सुल्तान था। मिनहाज उस सिराज की ‘तबकात ए नासिरी’ उसके इसी आश्रयदाता को समर्पित है। 1249 ई. में बलबन ने अपनी पुत्री हुजैदा का विवाह नासिरुद्दीन से कर दिया। नासिरुद्दीन ने बलबन को नायब का पद दिया। मंगोल आक्रमण को विफल करने के लिए बलबन को उलूग की उपाधि दी। इसी के शासनकाल में मंगोल हलाकू के दूत 1260 ई. में दिल्ली आए। 1253 ई. में मिन्हाज उस सिराज को मुख्य काजी के पद से हटा दिया गया। इसके स्थान पर शमसुद्दीन को मुख्य काजी नियुक्त किया गया। 1265 ई. में नासिरुद्दीन की मृत्यु हो गई। यह दिल्ली सल्तनत का एकमात्र सुल्तान था जिसकी सिर्फ एक पत्नी थी। इसे दिल्ली का आदर्श सुल्तान कहा जाता है।
नोट – इल्तुतमिश के पुत्र का नाम नासिरुद्दीन महमूद था। परंतु उसकी मृत्यु 1229 ई. में ही हो गई। नासिरुद्दीन की मृत्यु के बाद उसका पुत्र पैदा हुआ। इल्तुतमिश ने इसका नाम अपने उसी पुत्र के नाम पर नासिरुद्दीन महमूद रख दिया। अर्थात इल्तुतमिश के पुत्र व पौत्र दोनों का ही नाम नासिरुद्दीन महमूद था।
बलबन (1266-87 ई.)
बलबन और उसके छोटे भाई किश्लू खाँ को बचपन में ही मंगोल पकड़कर ले गए थे। मंगोलों ने इन्हें दास बनाकर जलालुद्दीन बसरे के हाथ बेच दिया। इल्तुतमिश ने ग्वालियर विजय के बाद इसे दिल्ली के बाजार से खरीदा। तभी ये दोनों भाई पुनः मिल गए।
विभिन्न पदों पर बलबन की नियुक्ति –
बलबन ने कुल सात पदों पर कार्य करते हुए सुल्तान का पद प्राप्त किया। बरनी इसके बारे में कहता है, ‘वह मलिक से खान और खान से सुल्तान हो गया।’
- इल्तुतमिश ने इसे चेहलगानी दल का सदस्य बनाया। फिर इसे खासतार (अंगरक्षकों का प्रधान) नियुक्त किया।
- रजिया ने इसे अमीर-ए-शिकार पद पर नियुक्त किया।
- बहरामशाह ने इसे अमीर-ए-आखूर (घुड़साला का प्रमुख) नियुक्त किया।
- मसूदशाह ने इसे अमीर-ए-हाजिब बनाया।
- नासिरुद्दीन महमूद ने इसे नायब के पद पर नियुक्त किया।
बलबन का राज्यारोहण –
1266 ई. में बलबन गियासुद्दीन की उपाधि के साथ शासक बना। शासक बनने के बाद भी इसे तमाम समस्याओं का सामना करना पड़ा। इनमें प्रमुख थे चालीसा दल के अमीर और विद्रोही। विद्रोहियों के प्रति बलबन ने रक्त व युद्ध की नीति अपनाई। मेव जनजाति के लोगों का दिल्ली के दोआब क्षेत्र में भयंकर आतंक फैला हुआ था। सबसे पहले बलबन ने मेवों का दमन किया। फिर अवध के विद्रोह को दबाया। इसने स्वयं को नैयबते खुदाई व जिल्ल-ए-इलाही कहा। दिल्ली के चारो कोनों में चार किले बनवाए। इन पर अफगान अधिकारियों की नियुक्ति की। बलबन का काल शासन सुदृढ़ीकरण का था, साम्राज्य विस्तार का नहीं। इसने खुद को ‘फिरदौसी की रचना शाहनामा‘ के नायक अफरासियाब का वंशज बताया।
बलबन के कार्य –
- ईरानी परंपरा सिजदा व पैबोस (पैर चूमना) की शुरुवात की। ईरानी त्योहार नौरोज की शुरुवात की।
- बलबन ने ही सबसे पहले सैन्य विभाग (दीवान-ए-अर्ज) का गठन किया।
- इमादुलमुल्क रावत को पहला दीवान ए अर्ज नियुक्त किया गया।
- 1279 ई. में शिक(जिला) का विकास किया। इस पर शिकदार की नियुक्ति की।
- बलबन ने सभी इक्ताओं में बरीद(गुप्तचर) की नियुक्ति की।
- इसने स्वयं शराब त्याग दी और सामाजिक सभाओं में नृत्य, संगीत व मद्यपान पर प्रतिबंध लगा दिया।
- दरबार में हंसी-मजाक बंद कर दिया।
- रक्त की शुद्धता व कुल की उच्चता पर बल दिया।
बंगाल की समस्या –
1254 ई. में ही अर्सला खाँ के नेतृत्व में बंगाल ने स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी। सुल्तान बनने के बाद बलबन ने अपने गुलाम तुगरिल खां को दक्षिण बंगाल के अपने अधिकार वाले क्षेत्र का इक्तादार बनाया। 1279 ई. में तुगरिल खाँ ने भी विद्रोह कर दिया। यह दास का मालिक से विद्रोह करने का पहला साक्ष्य है। बलबन ने अवध के इक्तादार अमीन खाँ को विद्रोह का दमन करने के लिए भेजा। अमीन खाँ इसमें असफल रहा। तो बलबन ने अमीन खाँ को मरवा कर अयोध्या के द्वार पर लटकवा दिया। इसके बाद अल्पतगीन मुएदराज को बंगाल भेजा। यह भी असफल रहा। तो बलबन ने इसे दिल्ली के द्वार पर फाँसी पर लटकवा दिया।
इसके बाद बलबन अपने पुत्र को साथ लेकर स्वयं बंगाल अभियान पे गया। दिल्ली का अधिभार वह अपने कोतवाल फखरुद्दीन को सौंप गया। बलबन के आने की खबर पाते ही तुगरिल ओडिशा के जंगलों में जा छिपा। बलबन के सैनिकों ने उसे खोजकर मार डाला। बलबन ने पुत्र बुगराखाँ को बंगाल का सूबेदार नियुक्त कर दिया।
मंगोल समस्या –
बलबन ने उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत की किलेबंदी की। ऐसा करने वाला यह दिल्ली का पहला सुल्तान था। वहाँ पर पहले अपने चचेरे भाई शेर खाँ को नियुक्त किया। बलबन का ज्येष्ठ पुत्र मुहम्मद खाँ 1286 ई. में मंगोलों (तमर खाँ) से लड़ते हुए मारा गया। अमीर खुशरो ने शहजादा मुहम्मद के ही संरक्षण में अपने साहित्यिक जीवन की शुरुवात की थी।
चालीसा दल का दमन
बनबन ने सबसे पहले चालीसा दल का दमन किया। क्योंकि बलबन स्वयं पहले चालीसा दल का सदस्य था। वह तुर्क चेहलगानी के अमीरों की चालों व षणयंत्रों से भलीभांति परिचित था। क्योंकि यह दल इनता अधिक शक्तिशाली हो चुका था कि सुल्तानों पर नियंत्रण रखने लगा था। इल्तुतमिश के बाद 30 वर्षों में इस दल ने उसी के वंश के 5 शासकों को बनाया और बर्वाद किया। इसके सदस्य बलबन को भी कभी भी चुनौती दे सकते थे। बलबन को लगा कि चालीसा दल के अंत के बिना सत्ता की समस्त शक्तियाँ प्राप्त करना असंभव है। बलबन ने इसके सदस्यों को एक-एक कर मरवा दिया। तुगरिल खाँ, खेरखाँ, मलिक बकबक, हैबत खाँ, अमीन खाँ चालीसा दल के कुछ प्रमुख सदस्य थे।
जागीरदारी व्यवस्था –
सैनिकों को उनकी सैन्य सेवा के बदले जागीरें दे दी जाती थीं। ये जागीरें उनके बाद भी इनके वंशजों के पास रहती थीं। इससे बलबन को राजस्व घाटा होने लगा। अतः उसने इन्हें बापस लेने की घोषणा कर दी। इनसे प्रभावित वृद्ध व विधवाएं दिल्ली सड़कों पर उतर आए। बलबन ने अपने मित्र व दिल्ली के कोतवाल की सलाह पर इस योजना को बापस ले लिया। बलबन के काल की यहीं एकमात्र नीति असफल रही।
बलबन की मृत्यु –
1286 ई. में पुत्र मुहम्मद की मृत्यु के एक वर्ष बाद 1287 ई. में पुत्र वियोग में बलबन की भी मृत्यु हो गई। बरनी कहता है, ”इसकी मृत्यु पर लोगों ने अपने वस्त्र फाड़ दिए और 40 दिन तक शोक मनाया।”
बलबन के बाद –
- बलबन अपने बाद अपने दूसरे पूत्र बुगरा खाँ को शासक बनाना चाहता था।
- परंतु वह बंगाल से न आ सका।
- तो बलबन ने अपने पुत्र मुहम्मद के पुत्र कैखुसरो को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।
- परंतु बलबन की मृत्यु के बाद दादबेग निजामुद्दीन ने कैखुशरो को शासक नहीं बनने दिया।
- उसने बुगरा खाँ के पुत्र कैकुबाद द्वारा कैखुशरो की हत्या करवा दी।
- इस तरह बलबन के बाद कैकुबाद शासक और निजामुद्दीन उसका नायब बना।
कैकुबाद (1287-90 ई.)
कैकुबाद बलबन का पौत्र था। ये बलबन के बाद दिल्ली सल्तनत का अगला सुल्तान बना। निजामुद्दीन इसका नायब बना। पिता के जीवित रहते पुत्र का शासक बनने का यह पहला उदाहरण है। राज्यारोहण के दो साल बाद 1289 ई. में बुगरा खाँ अपने पुत्र से मिलने आया। इसका उल्लेख अमीर खुसरो ने अपनी रचना ‘किरान उस सादेन’ में किया है। जब पिता बुगरा खाँ ने अपने सुल्तान बेटे को सिजदा व पैबोस किया। तो कैकुबाद अत्यंत लज्जित हुआ और पिता के चरणों में गिर गया। बुगरा खां ने कैकुबाद को अपने नायब से सावधान रहने को कहा। कैकुबाद दिल्ली आया और अपने नायब निजामुद्दीन को मार डाला। परंतु कुछ समय बाद कैकुबाद लकवाग्रस्त हो गया। फिरोज खिलजी के समर्थक तरकेश ने 1290 ई. में कैकुबाद को चादर में लपेटकर यमुना में फेंक दिया।
क्यूमर्स (1290 ई.)
कैकुबाद के लकवाग्रस्त होने के बाद शासन चलाने के लिए ढाई वर्षीय बालक क्यूमर्स को शासक बनाया गया।
यह गुलाम वंश का अंतिम शासक था।
कैकुबाद ने फिरोज खिलजी नामक एक अहम अधिकारी को बरन क्षेत्र का राज्यपाल नियुक्त किया।
इसे आरिज ए मुमालिक का पद दिया।
आगे चलकर इसी फिरोज खिलजी ने जलालुद्दीन खिलजी के नाम से शासक बन खिलजी वंश की स्थापना की।